पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२७३

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२३४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। है कि इनकी इच्छा अथवा आशा भी न करके मनुग्न्य को वही प्रयत्न करते रहना चाहिये कि जिससे प्राणिमात्र में एक आत्मावाली परमावधि की ब्रह्मनिष्ट स्थिति प्राप्त हो जावे । महाज्ञान श्रात्मा की शुद्ध प्रवत्या है; वह कुछ जादू, करामात या तिलस्माती लटका नहीं है। इस कारण इन सिद्धियों से-इन चमत्कारों से-ब्रह्मज्ञान . के गौरव का बढ़ना तो दर किनार, उसके गौरव के उसकी महत्ता के ये चमत्कार प्रमाण भी नहीं हो सकते । पक्षी तो पहले भी उड़ते थे पर प्रय विमानांवाले लोग भी आकाश में उड़ने लगे हैं किन्तु सिर्फ इली गुण के होने से कोई. इनकी गिनती ब्रह्मवेत्ताओं में नहीं करता । और तो क्या, जिन पुरुषों को ये अाकाश-मन प्रादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है, वे मालती-माधव नाटफवाले अघोरघण्ट के समान कर और घातकी भी हो सकते हैं। ब्रह्मात्मैक्यरूप मानन्दमय स्थिति का अनिर्वाच्य अनुगव और किसी दूसरे को पूर्णतया बतलाया नहीं जा सकता । क्योंकि जब उसे दूसरे को बतलाने लगेंगे तब मैं-तु,' वाली वैत की ही मापा से काम लेना पड़ेगा और इस ती भाषा मेंगत का समस्त अनुभव व्यक्त करते नहीं बनता। अतएव उपनिपदों में इस परमावधि की स्थिति के जो वर्णन हैं, उन्हें भी अधूरे और गौण समझना चाहिये। और जब ये वर्णन गौण हैं, तव सृष्टि की उत्पत्ति एवं रचना समझाने के लिये अनेक स्थानों पर उपनिपदों में जो निर द्वैती वर्णन पाये जाते हैं, उन्हें भीगौण ही मानना चाहिये। उदाहरण लीजिये, उपनिपदों में दृश्य सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में ऐसे वर्णन है कि यात्मत्त्वरूपी, शुद्ध, नित्य, सर्वव्यापी और अविकारी ग्राही से आगे चल कर हिरण्यगर्भ नामक सगुण पुरुप या ग्राप (पानी) प्रति सृष्टि के व्यक्त पदार्थ क्रमशः निर्मित हुए; अथवा परमेश्वर ने इन नाम-रूपों की रचना करके फिर जीव- रूप से उनमें प्रवेश किया (ते. २.६ घां.६.२.३० वृ. १. ४. ७), ऐसे सब द्वैतपूर्ण वर्णन अद्वैतदृष्टि से ययार्य नहीं हो सकते। क्योंकि, ज्ञानगम्य निर्गुण पर- मेश्वर ही जब चारों ओर भरा हुआ है, तब साविक दृष्टि से यह कहना ही निल हो जाता है कि एक ने दूसरे को पैदा किया। परन्तु साधारण मनुष्यों को सृष्टि की रचना समझा देने के लिये व्यावहारिक प्रति द्वैत की भाषा हो तो एक साधन है, इस कारण व्यक्त सृष्टि की अर्थात् नाम-रूप की उत्पत्ति के वर्णन उपनिपदों में उसी ढंग के मिलते हैं, जैसा कि ऊपर एक उदाहरण दिया गया है। तो भी उसमें अद्वैत का तत्व बना ही है और अनेक स्थानों में कह दिया है कि इस प्रकार द्वैती व्याव- हारिक मापा यतन पर भी मूल में यद्वैत दी है। देखिये, अब निश्चय हो चुका है कि सूर्य घूमता नहीं है, स्थिर है। फिर भी बोलचाल में जिस प्रकार यही कहा जाता है कि सूर्य निकल पाया अथवा डूब गया; उसी प्रकार यद्यपि एक ही प्रात्म- स्वरूपी परवस चारों ओर अखण्ड भरा हुआ है और यह अविकार्य है, तथापि उपनिपदों में भी ऐसी ही भाषा के प्रयोग मिलते हैं कि 'परबह से व्यक जगत् की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार गीता में भी यद्यपि यह कहा गया है कि