पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२७९

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२४० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। आदि गुणों का अथवा सीपी पर चाँदी का जब हमारी इन्द्रियाँ अध्यारोप करती है. तब इवा की लहरों में शब्द-रूप आदि के अथवा सीप में चांदी के गुण नहीं होते; परन्तु यद्यपि उनमें अध्यारोपित गुण न हों तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उनसे भिन्न गुण मूल पदार्थों में होंगे ही नहीं। क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते है कि यद्यपि सीप में चांदी के गुण नहीं हैं, तो भी चाँदी के गुणों के अतिरिक और दूसरे गुण उसमें रहते ही है। इसी से अब यहाँ एक और शक्षा होनी है यदि कहें कि इन्द्रियों ने अपने अज्ञान से मूल ब्रह्म पर जिन गुणों का अध्यारोप किया था, वे गुण ब्रह्म में नहीं हैं, तो क्या और दूसरे गुण परब्रह्म में न होंगे? और यदि मान लो कि हैं, तो फिर वह निर्गुण कहाँ रहा? किन्तु कुछ और अधिक सूक्ष्म विचार करने से ज्ञात होगा कि यदि मूल ब्रह्म में इन्द्रियों के द्वारा मध्यारोपित किये गये गुणों के अतिरिक्त और दूसरे गुण हो मी, तो हम उन्हें मालूम ही कैसे कर सकेंगे ? क्योंकि गुणों को मनुष्य अपनी इन्द्रियों से ही तो जानता है, और जो गुण इन्द्रियों को अगोचर है, वे जाने नहीं जाते । सारांश, इन्द्रियों के द्वारा अध्यारोपित गुणों के अतिरिक्त परब्रह्म में यदि और कुछ दूसरे गुण हों तो उनको जान लेना हमारे सामर्थ्य से बाहर है और जिन गुणों को जान लेना हमारे काबू में नहीं, उनको परब्रह्म में मानना भी न्यायशास्त्र की दृष्टि से योग्य नहीं है। अतएव गुण शब्द का मनुष्य को ज्ञात होनेवाले गुण ' अर्थ करके वेदान्ती लोग सिद्धान्त किया करते हैं कि ब्रह्म 'निर्गुण' है। न तो अद्वैत वेदान्त ही यह कहता है और न कोई दूसरा भी कह सकेगा कि मूल परब्रह्म-स्वरूप में ऐसा गुण या ऐसी शक्ति भनी होगी कि जो मनुष्य के लिये अतयं है । किंबहुना, यह तो पहले ही बतला दिया है कि वेदान्ती लोग भी इन्द्रियों के उक्त प्रज्ञान अथवां माया को उसी मूल परबहा की एक अतर्ण शक्ति कहा करते हैं। त्रिगुणात्मक नाया अथवा प्रकृति कोई दूसरी स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, किन्तु एक ही निर्गुण ब्रह्म पर मनुष्य की इन्द्रियाँ अज्ञान से सगुण दृश्यों का अध्यारोप किया करती हैं। इसी मत को 'विवर्त-वाद' कहते हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार यह उपपत्ति इस बात की हुई की जय निर्गुण ब्रह्म एक ही मूलतत्व है, तब नाना प्रकार का सगुण जगत् पहले दिखाई कैसे देने लगा। कणाद-प्रणीत न्यायशास्त्र में असंख्य परमाणु नगर के मूल कारण माने गये हैं और नैय्यायिक इन परमाणुओं को सत्य मानते हैं। इसलिये उन्होंने निश्चय क्रिया है कि जहाँ इन असंख्य परमा- णुओं का संयोग होने लगा, वहाँ सृष्टि के अनेक पदार्थ बनने लगते हैं। परमा- णुओं के संयोग का प्रारम्भ होने पर इस मत से सृष्टि का निर्माण होता है इस. लिये इसको 'प्रारम्भ-वाद' कहते हैं । परन्तु नैय्यायिकों के असंख्य परमाणुमाँ के मत को सांख्य मार्गवाले नहीं मानते; वे कहते हैं कि जड़ष्टि का मूल कारण 'एक, सत्य और त्रिगुणात्मक प्रकृति' ही है, एवं इस त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुणों के विकास से अथवा परिणाम से व्यक सृष्टि बनती है। इस मत को 'गुणपरिणाम-वाद'