पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्यात्म। २४१ कहते हैं। क्योंकि इसमें यह प्रतिपादन किया जाता है कि, एक मूल सगुण प्रकृति के गुण-विकाल से ही सारी व्यक्त सृष्टि पैदा हुई है। किन्तु इन दोनों वादों को अद्वैती वेदान्ती स्वीकार नहीं करते । परमाणु असंख्य हैं, इसलिये अद्वैत मत के अनुसार वे जगत का मूल हो नहीं सकते; और रह गई प्रकृति, सो यधपि वह एक हो तो भी उसके पुरुप से भिन्न और स्वतन्त्र होने के कारण अद्वैत सिद्धान्त से यह द्वैत भी विरुद्ध है। परन्तु इस प्रकार इन दोनों वादों को त्याग देने से और कोई न कोई उपपत्ति इस बात की देनी होगी कि एक निर्गुण नस से सगुण सृष्टि कैसे उपजी है। क्योंकि सत्कार्य-वाद के अनुसार निर्गुण से सगुण हो नहीं सकता। इस पर वेदान्ती कहते हैं कि सत्कार्य-वाद के इस सिद्धान्त का उपयोग वहीं होता जहाँ कार्य और कारण दोनों वस्तुएँ सत्य हो । परन्तु जहाँ मूलवस्तु एक ही है और जहाँ उसके भिन्न भिन्न दृश्य ही पलटते रहते हैं, वहीं इस न्याय का उपयोग नहीं होता । क्योंकि हम सदैव देखते हैं कि एक ही वस्तु के भिन्न भिन दृश्यों का देख पड़ना उस वस्तु का धर्म नहीं किन्तु द्रष्टा-देखनेवाले पुरुप-के दृष्टिभेद के कारण ये भित्र भित्र एश्य उत्पन्न हो सकते हैं। इस न्याय का उपयोग निर्गुण बम और सगुण जगत के लिये करने पर कहेंगे कि ब्रह्म तो निर्गुण है पर मनुष्य के इन्द्रिय-धर्म के कारण उसी में सगुणत्व की झलक उत्पन्न हो जाती है। यह विवर्त-वाद है । विवर्त-वाद में यह मानते हैं कि एक ही मूल सत्य द्रव्य पर अनेक असत्य अर्थात् सदा बदलते रहनेवाले दृश्यों का अध्यारोप होता है और गुणपरिणाम-वाद में पहले से ही दो सत्य द्रव्य मान लिये जाते हैं, जिनमें से एक के गुणों का विकास हो कर जगत की नाना गुणयुक्त अन्यान्य वस्तुएँ उपजती रहती हैं। रस्सी में सर्प का भाल होना विवर्त है। और दूध से दही बन जाना गुण-परि- णाम है। इसी कारण वेदान्तसार नामक ग्रन्थ की एक प्रति में इन दोनों वादों के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये है:- यस्तात्विकोऽन्यथाभावः परिणाम उदीरितः। अतात्विकोऽन्यथाभावो विवर्तः स उदीरितः ॥ "किसी मूल घस्तु से जब ताविक अर्थात् सचमुच ही दूसरे प्रकार की वस्तु बनती है, तब उसको (गुण-) परिणाम कहते हैं और जब ऐसा न हो कर मूल वस्तु ही कुछ की कुछ (अताविक) भासने लगती है, तन उसे विवर्त कहते हैं" (वे. सा. २१)। आरम्भ-वाद नैय्यायिकों का है, गुणपरिणाम-वाद सांख्यों का है और विवर्त- वाद अद्वैती वेदान्तियों का है। अद्वैती वेदान्ती परमाणु या प्रकृति, इन दोनों सगुण वस्तुओं को निर्गुण ब्रश से मिज और स्वतन्त्र नहीं मानते; परन्तु फिर यह आक्षेप

  • अमेज़ी में इसी अर्थ को व्यक्त करना हो, तो यों कहेंगे;- Bpponrances are

the results of sabjective conditions, vix, the songs of tho obser- ver and not of tho thing in itself. गी. र.३१ .