पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२८२

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अध्यात्म। २४३ परस्पर क्या सम्गन्ध है। अध्यात्म दृष्टि से जगत् को सभी वस्तुओं के दो वर्ग होते है-नाम-रूप' और नाम-रूप से आच्छादित 'नित्य तव । इनमें से नाम-रूपों को ही सगुण माया अपया प्रकृति कहते हैं। परन्तु नाम-रूपों को निकाल दालने पर जो नित्य द्रव्य ' बच रहता है, वह निर्गुण ही रहना चाहिये। क्योंकि कोई भी गुण बिना नाम-रूप के रह नहीं सकता। यह नित्य और अध्यक्त तत्व ही पर- प्रम है, और मनुष्य को दुबल इन्द्रियों को इस निर्गुण परब्रह्म में ही सगुण माया उपजी हुई देख पड़ती है। यह माया सत्य पदार्थ नहीं है। परमास ही सत्य अर्थात् त्रिकाल में भी प्रवाधित और कभी भी न पलटनेवाली वस्तु है। दृश्य सृष्टि के नाम- रूप और उनसे आच्छादित परपस के स्वरूप सम्बन्धी ये सिद्धान्त हुए । य इसी न्याय से मनुष्य का विचार करें तो सिद्ध होता है कि मनुप्य की देह और इन्द्रियों एश्य सृष्टि के अन्यान्य पदापों के समान नाम-रूपात्मक अर्थात् अनित्य माया के वर्ग में हैं और इन देइन्द्रियों से ढका हुआ सात्मा नित्यस्वरूपी परमल की श्रेणी का है। अथवा अस और मान्मा एक ही है। ऐसे अर्थ से याब सृष्टि को स्वतन्त्र, सत्य पदार्थ न माननेवाले अद्वैत-सिद्धान्त का और यौल-सिदान्त का भेद अय पाठकों के ध्यान में आ ही गया होगा । विज्ञान यादी पौध कहते हैं कि बाय सृष्टि ही नहीं है, वे अकेले ज्ञान को ही सत्य मानते हैं, और वेदान्तशास्त्री वाल सृष्टि के नित्य यदलते रहनेवाले नाम-रूप को ही असत्य मान कर यह सिद्धान्त करते हैं कि इस नाम-रूप के मूल में और मनुष्य की देह में-दोनों में --एफहीमात्मरूपी, नित्य द्रव्य भरा हुआ है एवं यह एक आत्मतत्य ही अन्तिम सत्य है। सांख्य मत वालों ने प्रविभक्त विभत्तेपु' के न्याय से सृष्ट पदार्थों की अनेकता के एकीकरण को जड़ प्रकृति भर के लिये ही स्वीकार कर लिया है। परन्तु वेदान्तियों ने सत्कार्य. पाद की बाधा को दूर करके निश्य किया है कि जो पिण्ड में है वही ब्रमाराठ में है। इस कारण सच सांख्यों के असंख्य पुरुषों का धौर प्रकृति का एक ही परमात्मा में अद्वैत से या अविभाग से समावेश हो गया है। शुद्ध माधिभौतिक परिडत इकल अद्वैती है सही; पर यह अकेली जड़ प्रकृति में ही चैतन्य का भी संग्रह करता है और वेदान्त, जड़ को प्रधानता न दे कर यह सिद्धान्त स्थिर करता है कि दिपालों से अमर्यादित, अमृत और स्वतन्त्र चिद्रूपी परत्रम ही सारी सृष्टि का मूल है। इफल के जड़ अद्वैत में और अध्यात्मशास्त्र के अद्वैत में यह अत्यन्त महत्त्व. पूर्ण भेद है। अद्वैत वेदान्त का यही सिद्धान्त गीता में है, और एक पुराने कवि ने समप्र अद्वैत वेदान्त के सार का वर्णन यों किया है- कोकार्धन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः । ब्रह्मा सत्यं जगन्मिथ्या जीवो अझैव नापरः ॥ " करोड़ों अन्यों का सार प्राधे श्लोक में यतलाता हूँ-(१) या सत्य है, (२) जगत् अर्थातू जगत के सभी नाम-रूप मिथ्या प्रथया नाशवान हैं; और (३) मनुष्य