पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२८१

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२४२ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । होता है कि सत्कार्य-बाद के अनुसार निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति होना असम्भव है। इसे दूर करने के लिये ही विवर्त-वाद निकला है। परन्तु इसी से कुछ लोग जो यह समझ बैठे हैं कि, वेदान्ती लोग गुण-परिणाम-वाद को कभी स्वीकार नहीं करते हैं अथवा त्राणे कमी न करेंगे, यह इनकी भूल है। अद्वैत मत पर, सांख्यमतवालों का अथवा अन्यान्य द्वैतमत-वालों का भी जो यह मुख्य आक्षेप रहता है कि निगुंज ब्रह्म से सगुण प्रकृति का अर्थात् माया का उद्गम हो ही नहीं सकता, सो यह आक्षेप कुछ अपरिहार्य नहीं है। विवर्त-वाद का मुख्य उद्देश इतना ही दिखला देवा है कि, एक ही निर्गुण ब्रह्म में माया के अनेक दृश्यों का हमारी इन्द्रियों को दिख पड़ना सम्भव है। यह उद्देश सफल हो जाने पर, अर्थात् जहाँ विवर्त-वाद से यह सिद्ध हुआ कि एक निर्गुण परब्रह्म में ही त्रिगुणात्मक सगुण प्रकृति के दृश्य का दिख पड़ना शक्य है वहाँ, वेदान्तशास्त्र को यह स्वीकार करने में कोई भी हानि नहीं कि, इस प्रकृति का अगला विस्तार गुण-परिणाम से हुआ है । अद्वैत वेदान्त का मुख्य कयन यही है कि स्वयं भूल प्रकृति एक दृश्य है। -सल नहीं है। नहीं प्रकृति का दृश्य एक वार दिखाई देने लगा, वहाँ फिर इन दृश्यों से आगे चलकर निकलनेवाले दूसरेश्यों को स्वतन्त्र न मान कर अद्वैत वेदान्त को यह मान लेने में कुछ भी आपत्ति नहीं है कि एक दृश्य के गुणों से दूसरे दृश्य के गुण और दूसरे से तीसरे आदि के, इस प्रकार नाना-गुणात्मक दृश्य उत्पन्न होते हैं। अतएव यद्यपि गीता में भगवान् ने बतलाया है कि "यह प्रकृति मेरी ही माया है" (गी. ७. ४.६), फिर भी गीता में ही यह कह दिया है कि ईश्वर के द्वारा अधिष्ठित (गी. ६. १०) इस प्रकृति का अगला विस्तार इस "गुणा गुणेषु वर्तन्ते" (गी. ३. २८, १४. २३) के न्याय से ही होता रहता है। इससे ज्ञात होता है कि विवर्त- वाद के अनुसार मूल निर्गुण पत्र में एक बार माया का दृश्य उत्पन्न हो चुकने पर इस मायिक दृश्य की, अर्थात् प्रकृति के अगले विस्तार की उपपत्ति के लिये गुणोत्कर्ष का तत्व गीता को भी मान्य हो चुका है। जब समूचे दृश्य जगत् को ही एक बार मापात्मक दृश्य कह दिया, तब यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि इन दृश्यों के अन्यान्य रूपों के लिये गुणोत्कर्ष के ऐसे कुछ नियम होने ही चाहिये। वेदान्तियों को यह अस्वीकार नहीं है कि मायात्मश्य का विस्तार भी नियम-बद्ध ही रहता है । उनका तो इतना ही कहना है कि, मूल प्रकृति के समान ये नियम भी मायिक ही है और परमेश्वर इन सव मायिक नियमों का अधिपति है। वह इनसे परे है, और उसकी सत्ता से ही इन नियमों को नियमत्व अर्थात् नित्यता प्राप्त हो गई है। दृश्य-रूपी सगुण अतएव विनाशी प्रकृति में ऐसे नियम बना देने का सामय्यं नहीं रह सकता किजो त्रिकाल में भी अबाधित रहें। यहाँ तक तो विवेचन किया गया है, उसले ज्ञात होगा, कि जात, जीव और परमेश्वर-अथवा अध्यात्मशास्त्र की परिभाषा के अनुसार माया (अर्थाद माया से उत्पन्न किया कुत्रा जगत), आत्मा और परब्रह्म का स्वरूप क्या है एवं इनका