अध्यात्म। २४५ अर्थ में ही हुआ है और वेदान्तसूत्रों (२. १. १७) में बादरायणाचार्य ने उक्त वचनों का ऐसा ही अर्थ किया है। किन्तु जिन लोगों को 'सत् 'अथवा सत्य' शब्द का यह अर्थ (अपर बतलाये हुए प्रयों में से दूसरा अर्थ) सम्मत है आँखों से न देख पड़ने पर भी सदैव रहनेवाला अथवा टिकाऊ-वे उस अदृश्य परमा को ही सत् या सत्य कहते हैं कि जो कभी भी नहीं बदलता और नाम-रूपात्मक माया को असत् यानी असत्य अर्थात् विनाशी कहते हैं उदाहरणार्थ, छान्दोग्य में वर्णन किया गया है कि “ सदेव सौम्येदमा आसीत् कथमसतः सजायेत"-पहले यह सारा जगत् सत् (प्रस) था, जो असत् है यानी नहीं है उससे सत्, यानी जो विद्यमान है-मौजूद है-कैसे उत्पन्न होगा (छां. ६. २. १, २)? फिर भी छान्दोग्य उपनिषद् में ही इस परपस के लिये एक स्थान पर अव्यक्त अर्थ में 'असत् ' शब्द प्रयुक्त हुभा है (छां.३.१६.१) एक ही परमल को भिन्न भिन समयों और अथों में एक बार 'सत्' तो एक बार 'असत्, यो परस्पर-विरुद्ध नाम देने की यह गड़बड़- अर्थात् वाच्य अर्थ के एक ही होने पर भी निरा शब्द-वाद मचवाने में सहायक प्रणाली धागे चल कर रक गई और अन्त में इतनी ही एकपरिभाषा स्थिर होगई है कि यह सत् या सत्य यानी सदैव स्थिर रहनेवाला है, और एश्य सृष्टि असत् अर्थात् नाशवान् है । भगवंद्वीता में यही अन्तिम परिभाषा मानी गई है और इसी के अनुसार दूसरे अध्याय (२. १६-१८) में कह दिया है कि परब्रह्म सत् और अविनाशी है, एवं नाम-रूप असत् अर्थात् नाशवान् हैं। और वेदान्तसूत्रों का भी ऐसा ही मत है। फिर भी रश्य सृष्टि को सत्' कह कर परवा को 'असत् ' या त्यत् (वह = परे का) कहने की तैत्तिरीयोपनिषद्वाली उस पुरानी परिभाषा का नामोनिशी अब भी बिलकुल जाता नहीं रहा है। पुरानी परिभाषा से इसका भली भाँति खुलासा हो जाता है कि गीता के इस *तत्-सत् ब्रह्मनिर्देश (गी. १७.२३) का मूल अर्थ क्या रहा होगा। यह गूढातररूपी वैदिक मन्त्र है। उपनिपदों में इसका अनेक शतियों से व्याख्यान किया गया है (प्र.५, मा.८-१२ छां. १.१)। तत् ' यानी वह अथवा दृश्य सृष्टि से परे, दूर रहनेवाला अनिर्वाच्य तत्व है और 'सत्' का अर्थ है आँखों के सामनेवाली दृश्य सृष्टि । इस सकल्प का अर्थ यह है कि ये तीनों मिल कर सव ब्रम ही है और इसी अर्थ में भगवान् ने गीता में कहा है कि " सदसच्चाहमर्जुन " (गी. ६. १६)- सत् यानी पर- बाम और असत् अर्थात् दृश्य सृष्टि, दोनों में ही हूँ। तथापि जव कि गीता में कर्म- योग ही प्रतिपाय है, तब सत्रहवें अध्याय के अन्त में प्रतिपादन किया है कि इस ब्रह्मनिर्देश से भी कर्मयोग का पूर्ण समर्थन होता है। 'ॐ तत्सत् ' के 'सत्' अध्यात्मशास्त्र वाले अंग्रेज़ ग्रन्थकारों में भी, इस विषय में मत-भेद है कि real अर्थात सत शब्द जगत के दृश्य (माया) के लिये उपयुक्त हो अथवा वस्तुतव (म) के लिये। कान्ट दृश्य को सद समझ कर (real) वस्तुसत्त्व को अविनाशी मानता है । पर हेगल और ग्रीन प्रभृति दृश्य को असत (unreal) समश कर वस्तुतत्त्व को सत (real ) कहते हैं।
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