पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२८५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । शब्द का अर्थ लौकिक दृष्टि से भला अर्थात सदन्ति से किया हुआ अथवा वह कर्म है कि जिसका अच्छा फल मिलता है और तत् का अर्थ परे का या फलाशा छोड़ कर किया हुआ कर्म है । संकल्प मैं जिसे 'सत्' कहा है वह एश्य सृष्टि यानी कम ही है, (देखो अगला प्रकरण ), अतः इस ब्रह्मनिर्देश का यह कर्मप्रधान अर्थ मूल अर्थ से सहज ही निष्पन्न होता है । ॐ तत्सत, नेति नेति, सच्चिदानन्द, और सत्यस्य सत्यं के अतिरिक्त और भी कुछ ब्रह्मनिर्देश उपनिषदों में है परन्तु उनको यहाँ इसलिये नहीं बतलाया कि गीता का अर्थ समझने में उनका उप- योग नहीं है। जगत्, जीव और परमेश्वर (परमात्मा) के परस्पर सम्बध का इस प्रकार निर्णय हो जाने पर, गीता में भगवान् ने जो कहा है कि " जीव मेरा ही 'अंश' है" (गीता. १५.७) और " मैं ही एक 'अंश' से सारे जगत् में व्याप्त है" (गी. १०.४२)-एवं बादरायणाचार्य ने भी वेदान्त (२.३.४३ ४.४.१६) में यही बात कही है-अथवा पुरुषसूक्त में जो "पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्या- मृतं दिवि " यह वर्णन है उसके पाद या 'अंश' शब्द के अर्थ का निर्णय भी सहज ही हो जाता है। परमेश्वर या परमात्मा यद्यपि सर्वव्यापी है, तथापि वह निरवयव और नाम-रूप-रहित है अतएव उसे काट नहीं सकते (अच्छेद्य) और उसमें विकार भी नहीं होता (अविकार्य); और इसलिये उसके अलग अलग विभाग या टुकड़े नहीं हो सकते (गी. २. २५)। अतएव जो परब्रह्म सघनता से अकेला ही चारों और व्याप्त है, उसका और मनुष्य के शरीर में निवास करनेवाले आत्मा का भेद बतलाने के लिये यद्यपि व्यवहार में ऐसा कहना पड़ता है कि 'शारीर प्रात्मा ' परग्रह का ही 'ग्रंश' है तथापि 'अंश' या भाग' शब्द का अर्थ " काट कर अलग किया हुआ टुकड़ा" या " अनार के अनेक दानों में से एक दाना "नहीं है, किन्तु तात्विक दृष्टि से उसका अर्थ यह समझना चाहिये, कि जैसे घर के भीतर का आकाश और घड़े का आकाश (मठाकाश और घटाकाश) एक ही सर्वव्यापी आकाश का 'अंश' या भाग है उसी प्रकार 'शारीर भात्मा भी परब्रह्म का अंश है (अमृतबिन्दूपनिपद् १३ देखो)। सांख्य-वादियों की प्रकृति, और इकल के जड़ाद्वैत में माना गया एक वस्तुतत्व, ये भी इसी प्रकार सत्य निर्गुण परमात्मा के ही सगुण अर्थात् मर्यादित अंश है। अधिक क्या कहें; श्राधिभौतिक शास्त्र की प्रणाली से तो यही मालूम होता है, कि जो कुछ व्यक या अध्यक भूल तत्व है (फिर चाहे वह आकाशवत कितना भी व्यापक हो), वह सव स्थल और काल से बद्ध केवल नाम-रूप अतएव मर्यादित और नाशवान् है । यह बात सच है कि उन तत्त्वों की व्यापकता भर के लिये उतना ही पखम उनसे आच्छादित है; परन्तु परब्रह्म उन तत्वों से मर्यादित न हो कर उन सब में ओत प्रोत भरा हुआ है और इसके अतिरिक्त न जाने वह कितना बाहर है, जिसका कुछ पता नहीं। परमेश्वर की व्यापकता दृश्य सृष्टि के बाहर कितनी है, यह बतलाने के लिये 6 1