1 २४८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। हो जावे; परन्तु इसके लिये अनेक पीढ़ियों के संस्कारों की, इन्द्रिय-निमाह की, दीघोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है। इन सब बातों की सहायता से " सर्वत्र एक ही आत्मा " का भाव जब किसी मनुष्य के संकट-समय पर भी उसके प्रत्येक कार्य में स्वाभाविक रीति से स्पष्ट गोचर होने लगता है, तभी समझना चाहिये कि उसका ब्रह्मज्ञान यथार्थ में परिपक्क हो गया है और ऐसे ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है (गी. ५.३८-२०६६.२१,२२)- यही अध्यात्मशास्त्र के उपर्युक्त सारे सिद्धान्तों का सारभूत और शिरोमणि-भूत अन्तिम सिद्धान्त है । ऐसा आचरण जिस पुल्प में दिखाई न दे, उसे 'कच्चा समझना चाहिये अभी वह ब्रह्म-ज्ञानाग्नि में पूरा पक नहीं पाया है । सच्चे साधु और निरे वेदान्त-शास्त्रियों में जो भेद है, वह यही है । और इसी अभिप्राय से भगवद्गीता में ज्ञान का लक्षण बतलाते समय यह नहीं कहा, कि "वारा सृष्टि के मूलतत्त्व को केवल बुद्धि से जान लेना " ज्ञान है; किन्तु यह कहा है कि सच्चा ज्ञान वही है जिससे “ अमानित्व, शान्ति, आत्मनिग्रह, समबुद्धि " इत्यादि उदात्त मनोवृतियाँ जागृत हो जावें और जिससे चित्त की पूरी शुद्धता आचरण में सदैव व्यक्त हो जाये (गी. १३. ७-११)। जिसकी व्यवसायात्मक बुद्धि ज्ञान से आत्म- निष्ठ (अर्थात् आत्म-अनात्मविचार में स्थिर) हो जाती है और जिसके मन को सर्व-भूतात्मैक्य का पूरा परिचय हो जाता है, उस पुरुष की वासनात्मक शुद्धि भी निस्संदेह शुद्ध ही होती है । परन्तु यह समझने के लिये कि किसकी बुद्धि कैसी है, उसके आचरण के सिवा दूसरा बाहरी साधन नहीं है। अतएव केवल पुस्तका से प्राप्त कोरे ज्ञान-प्रसार के आधुनिक काल में इस बात पर विशेष ध्यान रहे, कि ज्ञान ' या समबुद्धि शब्द में ही शुन्द (व्यवसायात्मक) बुद्धि, शुद्ध वासना (वासनात्मक बुद्धि) और शुद्ध आचरण, इन तीनों शुद्ध वातों का समावेश किया जाता है।ब्रह्म के विषय में कोरा वाफ्पांडिल्य दिखलानेवाले, और उसे सुन कर वाह ! वाह!!' कहते हुए सिर हिलानेवाले, या किसी नाटक के दर्शकों के समान " एक बार फिर से- वन्समोर" कहनेवाले बहुतेरे होंगे (गी. २.२९; क. २.७) । पन्तु जैसा कि ऊपर कह पाये हैं, जो मनुष्य अन्तर्वास शुद्ध' अर्थात् साम्यशील हो गया हो, वही सच्चा आत्मनिष्ठ है और उसी को मुक्ति मिलती है, नकि कोरे पंडित को- फिर चाहे वह कैसा ही बहुश्रुत और बुद्धिमान् क्यों न हो । उपनि. पदों में स्पष्ट कहा है कि " नायमात्मा प्रवचनेन लम्यो न मेधया यहुना श्रुतेन " (क. २.२२: मुं. ३.२.३); और इसी प्रकार तुकाराम महाराज भी कहते हैं- "यदि तू पंडित होगा, तो तू पुराण-कथा कहेगा, परन्तु तू यह नहीं जान सकता कि मैं 'कौन हूँ" । देखिये, हमारा ज्ञान कितना संकुचित है। मुक्ति मिलती है -ये शब्द सहज ही हमारे मुख से निकल पड़ते हैं ! मानो यह मुक्ति आत्मा से कोई मिन्न वस्तु है! ब्रह्म और आत्मा की एकता का ज्ञान होने के पहले द्रष्टा और दृश्य जगत् में भेद था सही; रन्तु हमारे अध्यात्मशास्त्र ने निश्चित कर रखा है, कि 5 3
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