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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२८८

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अध्यात्म। २४६ जय महात्मैक्य का पूरा ज्ञान हो जाता है तत्र आत्मा ब्रह्म में मिल जाता है, और प्रसज्ञानी पुरष आप ही ब्रह्मरूप हो जाता है। इस आध्यात्मिक अवस्या को ही 'मसनिर्वाण' मोक्ष कहते हैं। यह ग्रहानिर्वाण किसी से किसी को दिया नहीं जाता, यह कहीं दूसरे स्थान से आता नहीं, या इसकी प्राप्ति के लिये किसी अन्य लोक में जाने की भी आवश्यकता नहीं । पूर्ण आत्मज्ञान जव और जहीं होगा, उसी क्षण में और उसी स्थान पर मोक्ष धरा हुआ है। क्योंकि मोक्ष तो आत्मा ही की मूल शुद्धावस्था है। वह कुछ निराली स्वतंत्र वस्तु या स्थल नहीं है । शिवगीता (१३. ३२) में यह श्लोक ई मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा । अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ॥ अर्थात् “ मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जो किसी एक स्थान में रखी हो, अथवा यह भी नहीं कि उसकी प्राप्ति के लिये किसी दूसरे गाँव या प्रदेश को जाना पड़े। वास्तव में हृदय की प्रज्ञानप्रन्थि के नाश हो जाने को ही मोन कहते हैं। इसी प्रकार अध्यात्मशास्त्र से निष्पन्न होनेवाला यही अर्थ भगवद्गीता के आभिती अमनिवाणं वर्तते विदितात्मनाम् " (गी. ५. २६)-जिन्हें पूर्ण आत्मज्ञान हुआ है उन्हें ब्रह्मानिर्वाणरूपी मोक्ष आप ही आप प्राप्त हो जाता है, तथा "यः सदा मुक्त एव सः" (गी. ५. २८) इन श्लोकों में वर्णित है, और "प्रल वेद प्रमेय भवति"-जिसने वहा को जाना, वह माह ही हो जाता है (मुं.३.२.६) इत्यादि उपनिषद्-वाश्यों में भी वही अर्थ पर्णित है। मनुष्य के आत्मा की ज्ञान-दष्टि से जो यह विस्था होती है, उसी को बलभूत' (गी. १८.५४) या ब्राह्मी स्थिति कहते हैं (गी. २.७२); और स्थितप्रज्ञ (गी, २. ५५-७२), भक्तिमान् (गी. १२. १३-२०), या त्रिगुणातीत (गी. १४. २२-२७) पुरुषों के विषय में भग. वगीता में जो वर्णन हैं, वे भी इसी अवस्था के हैं। यह नहीं समझना चाहिये, कि जस सांख्य-वादी त्रिगुणातीत ' पद से प्रकृति और पुरुष दोनों को स्वतंत्र मान कर पुरुष के केवलपन. या 'कैवल्य' को मोक्ष मानते हैं, वैसा ही मोक्ष गीता को भी सम्मत है किन्तु गीता का अभिप्राय यह है, कि अध्यात्मशास में कही गई माएगी अवस्या "आई माहास्मि" मैं ही ब्रहा हूँ (पृ. १.४.१०)-कभी तो भक्ति मार्ग से, कमी चित्त-निरोधरूप पातजलयोगमार्ग से, और कभी गुणागुण-विवे- चनरूप सांख्य मार्ग से भी प्राप्त होती है । इन मागी में अध्यात्मविचार केवल बुद्धिगम्य मार्ग है, इसलिये गीता में कहा है कि सामान्य मनुष्यों को परमेश्वर-स्वरूप का ज्ञान होने के लिये भक्ति ही सुगम साधन है। इस साधन का विस्तारपूर्वक विचार हमने आगे चल कर तेरहवें प्रकरण में किया है। साधन कुछ भी हो इतनी बात तो निर्विवाद है, कि ब्रह्मात्मैक्य का अर्थात् सच्चे परमेश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना, सब प्राणियों में एक ही आत्मा को पहचानना, और उसी भाव के अनुसार वतीव करना ही अध्यात्म-ज्ञान की परमावधि है तथा यह अवस्था जिसे माल हो जाय वही पुरुप धन्य तथा कृतकृत्य होता है। यह पहले ही बराला चुके हैं, गी. र.३२ 3