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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२९५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । और प्रकाश, मर्त्य और अमर इत्यादि सारे द्वैतों को इस प्रकार अलग कर यद्यपि यह निश्चय किया गया कि केवल एक निर्मल चिद्रूपी विलक्षण परब्रह्म ही मृलारंभ में था; तथापि जव यह बतलाने का समय आया कि इस अनिर्वाच्य निर्गुण अकेले एक तत्व से आकाश, जल इत्यादि द्वंद्वात्मक विनाशी सगुण नाम-रूपात्मक विविध सृष्टि या इस सृष्टि की मूलभूत त्रिगुणात्मक प्रकृति कैसे उत्पन्न हुई, तब तो हमारे प्रस्तुत ऋषि ने भी मन, काम, असन और सत् जैसी द्वैती मापा का ही उपयोग किया है। और अन्त में स्पष्ट कह दिया है कि यह प्रश्न मानवी-बुद्धि की पहुँच के बाहर है । चौथी ऋचा में मूल ब्रह्म को ही 'असत् ' कहा है परन्नु उसका अर्थ "कुछ नहीं यह नहीं मान सकते, क्योंकि दूसरी ऋचा में ही स्पष्ट कहा है कि "वह है "न केवल इसी सूक्त में, किन्तु अन्यत्र भी न्यावहारिक भाषा को स्वीकार कर के ही ऋग्वेद और वाजसनेयी लहिता में गहन विषयों का विचार ऐसे प्रश्नों के द्वारा किया गया है (ऋ.१०.३१.७; १०.८१.४ वाज.सं. १७.२०देखो)- जैसे, दृश्य सृष्टि को यन की उपमा दे कर प्रश्न किया है कि इस यज्ञ के लिये आवश्यक घृत, समिधा इत्यादि सामग्री प्रथम कहाँ से आई ? (ऋ. १०.३०.३), अथवा घर का दृष्टान्त ले कर यह प्रश्न किया है, कि मूल एक निर्गुण से, नेत्रों को प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली आकाश-पृथ्वी की इस भव्य इमारत को बनाने के लिये लकड़ी (मूल प्रकृति) कैसे मिली? --किं स्विद्वनं क द स वृक्ष आस येतो द्यावा- पृथिवी निष्टतनुः। इन प्रश्नों का उत्तर, उपर्युक्त सूक की चौथी और पाँचवीं ऋचा में जो कुछ कहा गया है, उससे अधिक दिया जाना सम्भव नहीं है (याज.सं. ३३.७४ देखो); और वह उत्तर यही है, कि उस अनिर्वाच्य अकेले एक ब्रह्म ही के मन में सृष्टि निर्माण करने का काम 'रूपी तस्व किसी तरह उत्पन्न हुआ, और वस्त्र के धागे के लमान या सूर्य-प्रकाश के समान उसी की शाखाएँ तुरन्त नीचे अपर और चहुओर फैल गई तथा सत् का सारा फैलाव हो गया अर्थात् आकाश- पृथ्वी की यह भव्य इमारत वन गई। उपनिषदों में इस सूक के अर्थ को फिर भी इस प्रकार प्रगट किया है, कि " सोऽकामयत । बहु स्यां प्रजायेयेति । (ते. २.६ छां ६.२.३)- उस परब्रह्म को ही अनेक होने की इच्छा हुई (वृ.१.४ देखो); और अथर्व वेद में भी ऐसा वर्णन है, कि इस सारी दृश्य सृष्टि के मूलभूत न्य से ही पहले पहल 'काम' हुआ (अथर्व.६.२.१६) । परन्तु इस सूक्त में विशेषता यह है, कि निर्गुण से सगुण की, असत् से सत् की, निर्द्वन्द्व से द्वन्द्व की, अथवा असङ्ग से सङ्ग की उत्पत्ति का प्रश्न मानवी बुद्धि के लिए अगम्य समझ कर, सांख्यों के समान केवल तर्कवश हो मूल प्रकृति ही को या उसके सदश किसी दूसरे तत्व को स्वयंभू और स्वतन्त्र नहीं माना है। किन्तु इस सूक्त का ऋषि कहता है कि "जो वात समझ में नहीं आती उसके लिये साफ़ साफ़ कह दो कि यह समझ में नहीं आती; परन्तु उसके लिये शुद्ध बुद्धि से और आत्मप्रतीति से निश्चित किये गये अनिर्वाच्य ब्रह्म की योग्यता को दृश्य सृष्टिरूप माया की योग्यता के बराबर