पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२९४

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अध्यात्म। २५५ -बिना वायुके, या मृत्यु, इत्यादि कोई भी परस्पर-सापेक्ष नाम देना उचित नहीं; जो कुछ था, वह इन सब पदार्थो से विलक्षण था और वह अकेला एक ही चारों ओर अपनी अप- पार शक्ति से स्फूर्तिमान था; उसकी जोड़ी में या उसे आच्छादित करनेवाला अन्य कुछ भी न था । दूसरी ऋचा में आनीत् । क्रियापद के 'अन्' धातु का अर्थ है श्वासोच्छ्यास लेना या एकरण होना, और 'माण 'शब्द भी उसी धातु से बना है। परन्तु जो न सत् है और न असत, उसके विषय में कौन कह सकता है कि वह सजीव प्राणियों के समान धासोच्छ्वास लेता था और श्वासोच्छ्वास के लिये वहाँ वायु ही कहाँ है ? अतएव ' पानीत् ' पद के साथ ही प्रघात' और 'स्वधया' स्वयं अपनी ही माहिमा से इन दोनों पदों को जोड़ कर " सृष्टि का मूलतत्व, जद नहीं था " यह अद्वैतावस्या का अर्थ द्वैत की भाषा में बड़ी युक्ति से इस प्रकार कहा है, कि "यह एक विनों वायु के केवल अपनी ही शक्ति सेवासो- पवास लेता या स्फूर्तिमान होता था ! " इसमें पायष्टि से जो विरोध दिखाई देता है, वह द्वैती भापा की अपूर्णता से उत्पन हुआ है । “ नेति नेति ", " एकमेवाद्वि- तीयम् " या "स्वे महिनि प्रतिष्ठितः " (चां. ७. २४.१)-अपनी ही महिमा से सर्थात् अन्य किसी की अपेक्षा न करते हुए अकेला ही रहनेवाला-इत्यादि जो परबह के वर्णन उपनिषदों में पाये जाते है, वे भी उपरोक्त अर्थ के ही योतक हैं। सारी सृष्टि के मूलारंभ में चारों ओर जिल एक अनिर्वाच्य तत्व के कुरण होने की पात इस सूक्त में कही गई है, वही ताव सृष्टि का प्रलय होने पर भी निःसन्देह शेष रहेगा । श्रतएव गीता में इसी परग्रह का कुछ पर्याय से इस प्रकार वर्णन है, कि " सय पदार्थों का नाश होने पर भी जिसका नाश नहीं होता" (गी.८.२०); और आगे इसी सूक्त के अनुसार स्पष्ट कहा है कि वह सत् भी नहीं है और असत् भी नहीं है" (गी. १३. १२)। परन्तु प्रक्ष यह है कि जब सृष्टि के मूलारंभ में निर्गुण प्रम के सिवा और कुछ भी न था, तो फिर वेदों में जो ऐसे वर्णन पाये जाते है कि "आरंभ में पानी, अंधकार, या प्राभु और तुच्छ की जोड़ी थी" उनकी फ्या व्यवस्था होगी ? अतएव तीसरी ऋचा में कवि ने कहा है कि इस प्रकार के जितने वर्णन हैं जैसे कि, सृष्टि के प्रारंभ में अंधकार था, या अंधकार से आच्छादित पानी था, या आभु (ग्रा) और उसको प्राच्छादित करनेवाली माया (तुच्छ)ये दोनों पहले से थे इत्यादि, वे सब उस समय के हैं कि जब अकेले एक मूल परप्रस के तप-माहात्म्य से उसका विविध रूप से फैलाव हो गया था ये वर्णन मूलारंभ की स्थिति के नहीं हैं। इस ऋचा में तप' शब्द से मूल घर की ज्ञानमय विलक्षण शक्ति विवक्षित है और उसी का वर्णन चौथी ऋचा में किया गया है (मुं. १.१.६ देखो)।" एतावान् अस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुपः" (ऋ. १०.६०.३) इस न्याय से सारी सृष्टि ही जिसकी महिमा कहलाई, उस मूल नृत्य के विषय में फहना न पड़ेगा कि वह इन सब के परे, सब से श्रेष्ठ और भिन्न है । परन्तु दृश्य पस्त और द्रष्टा, भोक्ता और भोग्य, आच्छादन करनेवाला और अन्झाय, अंधकार