पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३०१

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गीतारहस्य भयवा कर्मयोगशास्त्र। किन्तु इस विषय में उनका यह सिद्धान्त है कि यह लव कर्म-विपाक का, अपवा कर्म के फलों का परिणाम है। गीसा में, वेदान्तसूत्रों में लौर उपनिपदों में स्पष्ट कहा है कि यह मर्म लिंग-शरीर के श्राश्रय से अर्थात् प्राधार से रहा करता है और जब आत्मा स्यूल देह छोड़ कर जाने लगता है तय यह कर्म भी लिंगशरीरद्वारा उसके साथ जा कर यार वार उसको भिन्न भिन्न जन्म लेने के लिये वाध्य करता रहता है। इसलिये नाम-रूपात्मक जन्म-मरण के चक्कर से छूट कर नित्य परब्रह्म-स्वरूपी होने मैं अथवा मोक्ष की प्राक्षि में, पिण्ड के आत्मा को जो अड़चन हुआ करती है उसका विचार करते समय लिंग-शरीर और कर्म दोनों का भी विचार करना पड़ता है। इनमें से लिंग-शरीर का सांख्य और वेदान्त दोनों दृष्टियों से पहले ही विचार किया जा चुका है। इसलिये यहाँ फिर उसकी चर्चा नहीं की जाती । इस प्रकरण में सिर्फ इसी बात का विवेचन किया गया है, कि जिस कर्म के कारण आस्मा को ब्रह्मज्ञान नं होते हुए अनेक जन्मों के चकर में पड़ना होता है, उस कर्म का स्वरूप क्या है, और उससे छूट कर प्रात्मा को अमृतत्व प्राप्त होने के लिये मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिये। सृष्टि के प्रारम्भकाल में अव्यक्त और निर्गुण परब्रह्म जिस देशकाम आदि नाम-रूपामक सगुण शक्ति से व्यक्त, अर्थात् दृश्य-सृष्टिरूप हुभा सा देख पड़ता है, उसी को वेदान्तशास्त्र में 'माया' कहते हैं (गी. ७. २४, २५); और उसी में कर्म का भी समावेश होता है (बु. १.६.१)किंबहुना यह भी कहा जा सकता है कि माया' और 'कर्म' दोनों समानार्थक हैं। क्योंकि पहले कुछ न कुछ कर्म, अर्थात् व्यापार, हुए विना अध्यक का व्यक्त होना अथवा निर्गुण का सगुण होना सम्मव नहीं। इसी लिये पहले यह कह कर कि मैं अपनी माया से प्रकृति में उत्पन्न होता हूँ (गी. ४.६), फिर आगे पाठवें अध्याय में गीता में ही कर्म का यह लक्षण दिया है कि 'अक्षर परमझ से पञ्चमहाभूसादि विविध सृष्टि-निर्माण होने की जो क्रिया है वही कर्म है' (गी.८.३) कर्म कहते हैं व्यापार अथवा क्रिया को फिर वह मनुष्यकृत हो, सृष्टि के अन्य पदार्थों की क्रिया हो, अथवा मूल सृष्टि के उत्पन्न होने की ही हो इतना व्यापक अर्थ इस जगह विवक्षित है । परन्तु कर्म कोई हो उसका परिणाम सदैव केवल इतना ही होता है, कि एक प्रकार का नाम-रूप बदक्ष कर उसकी जगह दूसरा नाम-रूप उत्पन्न किया जाया क्योंकि इन नाम-रूपों से आच्छादित मूल द्रव्य कभी नहीं बदलता-वह सदा एकसा ही रहता है। उदाहरणार्थ, बुनने की क्रिया से ' सूत' यह नाम बदल कर उसी द्वन्य को 'वस्त्र' नाम मिल जाता है और कुम्हार के व्यापार से मिट्टी' नाम के स्थान में 'घट' नाम प्राप्त हो जाता है । इसलिये माया की व्याख्या देते समय कर्म को न ले कर नाम और रूप को ही कभी कभी माया कहते हैं । तथापि कर्म का जब स्वतन्त्र विचार करना पड़ता है, तब यह कहने का समय आता है कि कर्म- स्वरूप और माया-स्वरूप एक ही हैं । इसलिये आरम्भ ही में यह कह देना