पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३०२

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कर्मविपाफ और आत्मस्वातन्त्र्य । २६३ अधिक सुभीते की बात होगी कि माया, नाम-रूप और कर्म, ये तीनों मूल में एक स्वरूप ही हैं। हाँ, उसमें भी यह विशिष्टार्थक सूक्ष्म भेद किया जा सकता है कि माया एक सामान्य शब्द है और उसी के दिखावे को नाम-रूप तथा व्यापार को कर्म कहते हैं। पर साधारणतया यह भेद दिखलाने की आवश्यकता नहीं होती। इसी लिये तीनों शब्दों का बहुधा समान अर्थ में ही प्रयोग किया जाता है। पर- नाम के एक माग पर विनाशी माया का यह जो आच्छादन (अथवा उपाधि-ऊपर का उढ़ौना) हमारी आँखों को दिखता है, उसी को सांख्यशास्त्र में “त्रिगुणात्मक प्रकृति " कहा गया है। सांख्य-वादी पुरुष और प्रकृति दोनों तत्वों को स्वयंभू, स्थतन्त्र और अनादि मानते हैं। परन्तु माया, नाम-रूप अथवा कर्म, क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। इसलिये उनको, नित्य और अविकारी परबहा की योग्यता का, अर्थात् स्वयंभू और स्वतंत्र मानना न्याय-दृष्टि से अनुचित है । क्योंकि नित्य और अनित्य ये दोनों कल्पनाएँ परस्पर विरुद्ध हैं और इसलिये दोनों का अस्तित्व एक ही काल में माना नहीं जा सकता । इसलिये वेदान्तियों ने यह निश्चित किया है कि विनाशी प्रकृति अथवा कर्मात्मक माया स्वतन्त्र नहीं है। किन्तु एक नित्य, सर्व- व्यापी और निर्गुण परमझ में ही मनुष्य की दुर्बल इन्द्रियों को सगुण माया का दिखावा देख पड़ता है । परन्तु केवल इतना ही कह देने से काम नहीं चल जाता कि माया परतन्त्र है और निर्गुण परप्रम में ही यह दृश्य दिखाई देता है । गुण- परिणाम से न सही, तो विवर्त-वाद से निर्गुण और नित्य ब्रम में विनाशी सगुण नाम-रूपों का, अर्थात् माया का एश्य दिखना चाहे सम्भव हो; तथापि यहाँ एक और प्रश्न उपस्थित होता है, कि मनुष्य की इन्द्रियों को दिखनेवाला यह सगुण दृश्य निर्गुण परब्रह्म में पहले पहल किस क्रम से, कब और क्यों दिखने लगा! अथवा यही अर्थ व्यावहारिक भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है, कि नित्य और चिपी परमेश्वर ने नाम-रूपात्मक, विनाशी और जड़ सृष्टि कब और क्यों उत्पन्न की? परन्तु ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जैसा कि वर्णन किया गया है, यह विषय मनुष्य के ही लिये नहीं किन्तु देवताओं के लिये और वेदों के लिये भी अगम्य है (ऋ. १०. १२६ ते. मा. २.८.६), इसलिये उक्त प्रश्न का इससे अधिक और कुछ उत्तर नहीं दिया जा सकता कि " ज्ञान-दृष्टि से निश्चित किये हुए निर्गुण परब्रह्म की ही यह एक अतर्य लीला है" (वेसू. २. १. ३३) । अतएव इतना मान कर ही आगे चलना पड़ता है, कि जब से हम देखते आये तब से निर्गुण ब्रह्म के साथ ही नाम-रूपात्मक विनाशी कर्म अथवा सगुण माया हमें गोचर होती आई है। इसी लिये वेदान्तसूत्र में कहा है कि मायात्मक कर्स अनादि है (वेसू. २. १. ३५-३७) और भगवडीता में भी भगवान् ने पहले यह वर्णन करके कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है- 'मेरी ही माया है' (गी. ७.१४), फिर आगे कहा है कि प्रकृति अर्थात् माया, और पुल्प, दोनों ' अनादि' है (गी. १३. १)। इसी तरह श्रीशंकराचार्य ने अपने भाष्य में माया का लक्षण देते हुए कहा है कि सर्वज्ञे-