२६६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। मद्देश आदि सगुण देवता भी कमों में ही बंधे हुए है । इन्द्र आदिकों का क्या पूछना ई ! सगुण का अर्थ है नाम-रूपात्मक और नाम-रूपात्मक का अर्थ है कर्म या कर्म का परिणाम । जब कि यही बतलाया नहीं जा सकता कि मायात्मक कर्म प्रारम्भ में कैसे उत्पन हुना, तब यह कैसे बतलाया जावे कि तदभूत मनुष्य इस मंचन में पहले-पहल कैसे फंस गया। परन्तु किसी भी रीति से क्यों न हो, जब यह एक वार कर्म-यन्धन में पड़ शुभश, तब फिर आगे चल कर उसकी एक नाम-रूपात्मक देह का नाश होने पर कर्म के परिणाम के कारण उसे इस सृष्टि में भिन्न मिन रूपों का मिलना कभी नहीं दृढ़ता; क्योंकि प्राधुनिक प्राधिभौतिक शास्त्रकारों ने भी अव यह निश्चित किया है कि कम-शक्ति का कभी भी नाश नहीं होता; दिनु जो शक्ति आज किसी एक नाम-रूप से देख पड़ती है. वही शक्ति उस नाम-रूप के नाश होने पर दूसरे नाम-रूप से प्रगट हो जाती है। और जब कि किसी एक नाम- रुप के नाश होने पर उसको भित्र भित नाम-रूप प्राप्त हुना ही करते हैं, तब यह भी नहीं माना जा सकता कि ये भिन मिरा नाम-रूप निर्जीव ही होंगे सावका भिन्न प्रकार के हो ही नहीं सकते । अध्यात्म-दृष्टि से इस नाम-रूपात्मक पल्परा को ही जन्म-मरण का चक्र या संसार कहते हैं और इन नाम-रूपों की समारभूत शक्ति को समष्टि रूप से मस, और व्यष्टि रूप से जीवात्मा कहा करते हैं। वस्तुतः देखने से यह विदित होगा कि यह श्रात्मा न तो जन्म धारण करता है और न मरता ही है अर्थात वह नित्य और त्यायी है । परन्तु कर्म-बन्धन में पड़ जाने के कारण एक नाम-रूप के नाश हो जाने पर उसी को एसरे नाम-रूपों का मात होना टल नहीं सकता । आज का कर्म कल भोगना पड़ता है और कल का परसों; इतना ही नहीं, किन्तु इस जन्म में जो कुछ किया जाय उसे अगले जन्म में भोगना पड़ता है-इस तरह यह भव-चक्र सदैव चलता रहता है। मनुस्मृति तया नहाभारत (मनु. ४. १७३, ममा. बा.८०.३) में तो कहा गया है कि इन कर्म-फलों को न केवल हमें किन्तु कभी कभी हमारी नाम-रूपात्मक देह से उत्पन्न हुए हमारे लड़कों यह बात नहीं कि पुनर्जन्म का इस कल्पना को फेवल हिन्दूधर्म ने या केवल आत्तिर- वादियों ने ही माना हो । यद्यपि बौद्ध लोग आत्मा को नहीं मानते, तथापि वैदिकधर्म में वर्णित पुनर्जन्म की कल्पना को उन्होंने अपने धर्म में पूर्ण सति से स्थान दिया है और दीसवीं शताब्दी में " परमेश्वर मर गया " कहनेवाले पर निरोघरवादी जर्मन पण्डित निशे ने भी पुनर्जन्म-वाद को स्वीकार किया है । उसने लिखा है कि कर्म-शक्ति के जो हमेशा रूपान्तर हुआ करते हैं, वे मयांदित है तथा काल अनन्त है; इसलिये कहना पड़ता है कि एक बार बो नाम-रूप हो चुके हैं, वहीं फिर आगे यथापूर्व कमी न कां अवश्य उत्पन्न होते ही हैं, और इसी से कर्म का चक्र अर्थात बन्धन केवल आधिभौतिक दृष्टि से ही सिद्ध हो जाता है। उसने यह भी लिखा है कि यह कल्पना या उपपत्ति मुझे अपनी स्फूर्ति से HASA GET! Nietzsche's Eternal Recurrence, (Complete Works - Engl. Trans, Vol. XVI. pp. 235-256 ).
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