कर्मविपाक और आत्मस्वातन्त्र्य । २६५ जाती है, इसलिये इस पात का पता नहीं लगता कि यह लीला, नाम-रूप अथवा मायात्मक फर्म 'कय ' उत्पन्न हुआ । अतः फेवल कर्म-सृष्टि का ही विचार जय करना होता है तब इस परतन्त्र और विनाशी माया को तथा माया के साथ ही तदंगभूत कर्म को भी, वेदान्तशास्त्र में अनादि कहा करते हैं (वेसू. २.१.३५) । स्मरण रहे कि, जैसा सांख्य-वादी कहते हैं, उस प्रकार, अनादि का यह मतलब नहीं है कि माया मूल में ही परमेश्वर की बराबरी की, निरारम्भ और स्वतन्त्र है। परन्तु यहाँ अनादि शब्द का यह अर्थ विवक्षित है कि वह दुयारम्भ है, अर्थात् उसका आदि(आरम्भ) मालूम नहीं होता। परन्तु यद्यपि हमें इस बात का पता नहीं लगता कि चिद्रूप ग्रह कात्मक अर्थात् एश्यसृष्टि-रूप कब और क्यों होने लगा, तथापि इस मायात्मक कर्म के अगले सब व्यापारों के नियम निश्चित हैं और उनमें से बहुतेरे नियमों को हम निश्चित रूप से जान भी सकते हैं। आठवें प्रकरण में सांख्यशास्त्र के अनुसार इस यात का विवेचन किया गया है, कि मूल प्रकृति से अर्थात् अनादि मायात्मक कर्म से ही आगे चल कर सृष्टि के नाम-रूपात्मक विविध पदार्य किस क्रम से निर्मित हुए; और वहीं आधुनिक प्राधिभौतिकशाण के सिद्धान्त भी तुलना के लिये बतलाये गये हैं। यह सच है कि वेदान्तशास्त्र प्रकृति को परवसा की तरह स्वयम्भू नहीं मानता; परन्तु प्रकृति के अगले विस्तार का मम जो सांख्यशास्त्र में कहा गया है, वही वेदान्त को भी मान्य है। इसलिये यहाँ उसकी पुनरुक्ति नहीं की जाती। कर्मात्मक मूल प्रकृति से विध की उत्पत्ति का जो क्रम पहले बतलाया गया है उसमें, उन सामान्य नियमों का कुछ भी विचार नहीं हुआ कि जिनके अनुसार मनुष्य को कर्म-फल भोगने पड़ते हैं। इसलिये अब उन नियमों का विवेचन करना आवश्यक इसी को कर्म-विपाक ' कहते हैं । इस कर्म-विपाक का पहला नियम यह है कि जहाँ एक बार कर्म का प्रारम्भ हुआ कि फिर उसका व्यापार आगे बरावर प्रखण्ड जारी रहता है और जब ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर सृष्टि का संहार होता है तब भी यह कर्म बीजरूप से बना रहता है एवं फिर जब सृष्टि का प्रारम्भ होने लगता है तय उली कम-बीज से फिर पूर्ववत् अंकुर फूटने लगते हैं। महाभारत का 1 कथन है कि येषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्टयां प्रतिपेदिरे । तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ।। अर्थात् " पूर्व की सृष्टि में प्रत्येक प्राणी ने जो जो कर्म किये होंगे, ठीक ने ही कर्म उसे (चाहे उसकी इच्छा हो या न हो) फिर फिर यथापूर्व प्राप्त होते रहते हैं। (देखो ममा. शां. २३१.४८,४६ और गी. ८.१८ तथा १६) । गीता (४.११) में कहा है कि “ गहना कर्मणो गतिः "-कर्म की गति कठिन है। इतना ही नहीं किन्तु कर्म का बन्धन भी पड़ा कठिन है। कर्म किसी से भी नहीं छूट सकता । वायु कर्म से ही चलती है। सूर्य-चन्द्रादिक कर्म से ही घूमा करते हैं; और ब्रह्मा, विष्णु,
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