M इन तीनों - - कर्मविपाक और आत्मस्वातन्न्य। २७१ विवेचन करने का प्रसंग शाया परता से ललिग वर्म-विपाय-अमिया में कर्ग के विभाग प्रायः एक मनुष्य को ही लकय कर किये जाते है। उदाहरणार्थ, मध्य से किये जागेयाले अशुभ कामों के मनुजी ने मालिक, वाचि शोर मानसिक तीन भेद किये हैं। व्यभिचार, रिसार जारी इन लोगों को कायिका; कट्टा मिटया, ताना मारना और जसंगत मोलगा इन चारों को वाचिका पर पर-प्यामिलापा, दूसरो का प्राधित-चिन्तन और नर्मल करना को मानसिक पाप कहते हैं। सब लिला परमार अशुभ चा पाप-सा यतलाये गये है (तु. १२.५-३, मा. सगु. १२) और तल भी कई गये हैं । परन्तु ये भव तुला यायी गई कि इसी ध्याग में सत्र कमों के फिर भी साविक, राजस रासस-गांग भेद किर गरे में सार प्रायः भगवद्गीता में दिये गये पर्गन के सगुनार इन तीन प्रकार के गुरणों या कमी के लक्षगा भी बतलाये गये । (गी. ११. 11-1५; १८.२३-२५: मगु. १२.३१-३४)। पस्तु कर्म-विपाकारमार्गकाजोलत: विभाग पाया जाता है, यह इन दोनों से भी निज उसमें कम लंधित. प्रारपार हिसारण, ये तीन भेद फिरे जाते हैं। किसी मनुष्य को धारा इस गातमा लिया गया जो फर्म चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्वगना में यह राय 'संचित अर्थात फत्रित 'मन कहा जाता है। इसी संचित' का दूसरा नाम ' और मीमांसकों की परिभाषा में पूर्व' भी है। इन गानों से पड़ने का कारण यह ईकि जिस समय पर या क्रिया की जाती है उसी समय के लिये वह न रहती है, उस समय के बीत जाने पर यह मिया सरपतःोप नहीं रहती; किन्तु उसके सूक्ष्म प्रताप सश्य अर्थात अपूर्ण और दिलशमा परिणाम ही पारी रह जाते हैं (पैसू. शांभा.३.२.३६, १०)। भी दो परन्तु इसम सन्देश नहीं कि इस क्षण तक जो जो फर्म किये गये होंगे उन सब परिणामों के संग्रह को ही संचित', पाए' या 'अपूर्व ' कहते हैं। उन सब संचित पानी को गकदम भोगना असम्भव है, क्योंकि इनके परिणामों से शुद्ध परस्पर विरोधी प्रांग भले और उरे दोनों प्रकार के पाल देनेवाले हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, गाई संचित वर्ग स्वगंनद और कोई नत्यमद भी होते हैं, इसलिये इन दोनों के फलों को एक ही समय भोगना सम्भव नहीं के बाद भोगना पड़ता है। अतएव 'संचित' में से जितने फर्मों के फलों को भोगना पहले शुरू होता है उतने ही को प्रारध' अर्थात् भारम्भित 'लंधित' कहते है । व्यवहार में संचित के अर्थ में ही प्रारध' शब्द का पहुधा उपयोग किया जाता है परन्तु यह भूल है। शास्त्र-द्रष्टि से यही प्रगट होता है कि संचित के पति समस्त भूतपूर्व कमी के संग्रह के एक छोटे भेद को ही प्रारूध' कहते हैं। प्रारब्ध' कुछ समस्त संचित नहीं है। संचित के जितने भाग के फलों का (कार्यों का) भोगना प्रारम्भ हो गया हो उतना ही प्रारूप है और इसी कारण से इस प्रारध का दूसरा नाम 3
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