पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३२०

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कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २८१ उल्लेख यों किया गया है। न दिनस्त्यात्मनात्मानं "-जो स्वयं अपना घात माप ही नहीं करता, उसे उत्तम गति मिलती है (गी. १३. २८) और दासबोध में भी इसी का स्पष्ट अनुवाद किया गया है (दा. बो. १७.७.७-१०) । यद्यपि देख पड़ता है कि मनुष्य कम-सृष्टि के अभेद्य नियमों से जकड़ कर बँधा हुआ है, तथापि स्वभावतः उसे ऐसा मालूम होता है कि मैं किसी काम को स्वतंत्र रीति से कर सगा। अनुभव के इस तव की उपपत्ति पर कहे अनुसार प्रस-सृष्टि को जड़-सृष्टि से भिक माने बिना किसी भी अन्य रीति से नधी वतलाई जा सकती। इसलिये जो भ्यालशास्त्र को नहीं मानते, उन्ई इस विषय में या तो मनुष्य के नित्य दासत्व को मानना चाहिये, या प्रवृत्ति-स्वातन्त्र्य के प्रश्न को अगम्य समझ कर यों ही छोड़ देना चाहिये, उनके लिये कोई दूसरा मार्ग नहीं है । द्वैत वेदान्त का यह सिद्धान्त कि जीवात्मा और परमात्मा मूल में एकरूप हैं (वेसू. शांभा. २. ३. ४०) और इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रवृत्ति-स्वातन्य या इच्छा-स्वातंत्र्य की उक्त उपपति बतलाई गई है। परन्तु जिन्हें यह अद्वैत मत मान्य नहीं है, अथवा जो भक्ति के लिये वैत का स्वीकार किया करते हैं, उनका कथन है कि जीवात्मा का यह सामर्श स्वयं उसका नहीं है, बल्कि यह उसे परमेश्वर से प्राप्त होता है । तथापि " न मरते श्रान्तस्य सख्याय देवाः " (ऋ. ४. ३३.११)-थकने तक प्रयत्न करनेवाले मनुष्य के अतिरिक्त अन्यों को देवता लोग मदत नहीं करते-भाग्वेद के इस तरवानु- सार यह कहा जाता है कि जीवात्मा को यह सामर्थ्य प्राप्त करा देन के लिये पहले स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिये, अर्थात प्रात्म-प्रयत्न का और पर्याय से आत्म- खातंत्र्य का तत्व फिर भी स्थिर बना ही रहता है (वेसू. २. ३. ४१, ४२, गी. १०. ५ और १०)। अधिक क्या कहें बौद्धधर्मी लोग आत्मा का या परग्रस का शास्तित्व नहीं मानते और यद्यपि उनकी ब्रमज्ञान तथा आत्मज्ञान मान्य नहीं है, तथापि उनके धर्मग्रंथों में यही उपदेश किया गया है कि " अत्तना (यात्सना) चोदया तानं "-अपने नापं को स्वयं अपने ही प्रयत्न से राह पर लगाना चाहिये ।। ।इस उपदेश का समर्थन करने के लिये कहा गया है कि:- अत्ता (आत्मा) हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति । तस्मा सञमयऽत्ताण अस्सं ( अश्वं) भई व वाणिजो ॥ हम ही खुद अपने स्वामी या मालिक हैं और अपने मामा के सिवा हमें तारने वाला दूसरा कोई नहीं है इसलिये जिस प्रकार कोई व्यापारी प्रपने उत्तम घोड़े का संयमन करता है, उसी प्रकार हमें सपनासंयमन प्रापही भली भाँति करना चाहिये" (धम्मपद. ३८०); और गीता की भाँति आत्म-स्वातंत्र्य के अस्तित्व तथा उसकी अावश्यकता का भी वर्णन किया गया है (देखो महापरिनिव्याणसुत्त २.३३-३५)। आधिभौतिक फ्रेंच परिडत कोंट की भी गणना इसी वर्ग में करनी चाहिये क्योंकि यीप वह किसी भी अध्यात्म-वाद को नहीं मानता, तथापिवह बिना किसी उपपत्ति $6