पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३२१

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२८२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। के केवल प्रत्यबसिद्ध कह कर इस बात को अवश्य मानता है, कि प्रयत्न से मनुष्य अपने माचरण और परिस्थिति को सुधार सकता है। यद्यपि यह सिद्ध हो चुक्ता कि कर्मपाश से मुक्त हो कर सर्वभूतान्तर्गत एक आत्मा को पहचान लेने की जो प्राध्यात्मिक पूर्णावस्था है उसे प्राप्त करने के लिये ब्रह्मात्मैश्य-ज्ञान ही एकमात्र उपाय है और इस ज्ञान को प्राप्त कर लेना हमारे अधिकार की यात है, तथापि सरण रहे कि यह स्वतंत्र आत्मा भी अपनी छाती पर लदे हुए प्रकृति के बोझ को एकदम अर्थात् एक ही क्षण में अलग नहीं कर सकता ।जसे कोई कारीगर फितना ही कुशल क्यों न हो परन्तु वह हथियारों के विना कुछ काम नहीं कर सकता और यदि हथियार सराव शं तो उन्हें टीक करने मैं उसका बहुत सा समय नष्ट हो जाता है, वैसा ही जीवात्मा का भी हाल है। ज्ञान-प्राति की प्रेरणा करने के लिये जीवात्मा स्वतंत्र तो अवश्य है पस्नु वह ताविक दृष्टि से मूल में निर्गुण और केवल है, अथवा सातवें प्रकरण में बतलाये अनुसार नेत्रयुक्त परन्तु लँगड़ा है (मैन्यु. ३. २, ३गी. १३. २०), इसलिये उक प्रेरणा के अनुसार कर्म करने के लिये जिन साधनों की आवश्यकता होती है (जैसे कुम्हार को चाक की आवश्यकता होती है) वे इस प्रात्मा के पास स्वयं अपने नहीं होते-जो साधन उपलब्ध है, जैसे देव और बुद्धि-प्रादि इन्द्रियाँ, वे सब मायात्मक प्रकृति के विकार हैं। अतएव जीवात्मा को अपनी मुक्ति के लिये भी, प्रारूघ-कर्मानुसार प्राप्त देहेन्द्रिय आदि सामग्री (लाधन या उपाधि) के द्वारा ही सब काम करना पड़ता है। इन साधनों में वृद्धि मुख्य है इसलिये कुछ काम करने के लिये जीवात्मा पहले सुदि को ही प्रेरणा करता है। परनु पूर्वधमांनुसार और प्रकृति के स्वभावानुसार यह कोई नियम नहीं कि यह सुद्धि हमेशा शुद्ध तथा साविक ही हो । इसलिये पहले निगुणात्मक प्रकृति के प्रपंच से मुक्त हो कर यह बुद्धि अन्तर्मुख, शुद्ध, साविक या आत्मनिष्ट होनी चाहिये अर्थात् यह बुद्धि ऐसी होनी चाहिये कि जीवात्मा की प्रेरणा की माने इसकी जाज्ञा का पालन करे और उन्हीं कर्मों को करने का निश्चय करे कि जिनसे श्रात्मा का कल्याण हो । ऐसा होने के लिये दीर्घकाल तक वैराग्य का अभ्यास करना पड़ता है । इतना होने पर भी भूख-प्यास आदि देहधर्म और संचित कमाँ के वे फल, जिनका भोगना प्रारंम हो गया है, मृत्यु-समय तक घटत ही नहीं । तात्पर्य यह है कियधपिरपाधि- वद्ध जीवात्मा देहन्द्रियों को मोक्षानुकूल कर्म करने की प्रेरणा करने के लिये स्वतंत्र है, तथापि प्रकृति ही के द्वारा चूंकि उसे सब काम कराने पड़ते हैं, इसलिये उतने मर के लिये (वढ़ई, कुम्हार भादि कारीगरों के समान) वह परावलम्बी हो जाता है और उसे देन्द्रिय आदि हथियारों को पहने शुद्ध करके अपने अधिकार में कर लेना पड़ता है (वेसू. २. ३.४० )यह काम एकदम नहीं हो सकता, इसे धीरे धीरे करना चाहिये, नहीं तो चमकने और भड़कनेवाले घोड़े के समान इन्द्रियाँ बनवा करने लगेगी और मनुष्य को धर दबावगी। इसी लिये भगवान ने कहा है कि इन्द्रिय