२८४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । जायगा, इसलिये यह शका उत्पन्न होती है कि ऐसे मनुष्य को पूर्ण सिद्धि कमी मिल ही नहीं सकती; फलतः ऐसा भी मालूम होने लगता है कि कर्मयोग का याचरण करने के पूर्व पातंजल योग की सहायता से पूर्ण निर्विकल समाधि लगाना पहले सीख लेना चाहिये । अर्जुन के मन में यही शत उत्पन्न हुई थी और उसने गीता के छठवें अध्याय (६.३७-३६) में श्रीकृष्ण से पूछा है कि ऐसी दशा में मनुष्य को क्या करना चाहिये । उत्तर में भगवान ने कहा है कि आत्मा अमर होने के कारण इस पर लिंग-शरीर द्वारा इस जन्म में जो थोड़े बहुत संस्कार होते है। चागे भी ज्यों के त्यों बने रहते हैं, तथा यह ' योगभ्रष्ट' पुरुप, अर्थात् कर्मयोग को पूरा न साध सकने के कारण उससे अष्ट होनेवाला पुरुष, अगले जन्म में अपना प्रयत्न यहीं से शुरू करता है कि जहाँ से उसका अभ्यास घट गया था और ऐसा होत होते कम से "अनवाजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् " (गी. ६.४५)- अनेक जन्मों में पूर्ण सिद्धि हो जाती है एवं अन्त में उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसी सिद्धान्त को लक्ष्य करके दूसरे अध्याय में कहा गया है कि " खल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्" (गी. २.४०)- इस धर्म का अथांत करयोग का स्वरूप प्राचरण भी बड़े बड़े संकटों से बचा देता है। सारांश, मनुष्य का आत्मा नूल में ययपि स्वतंत्र है तथापि मनुष्य एक ही जन्म में पूर्ण सिद्धि नहीं पा सकता, क्योंकि पूर्व कर्मों के अनुसार उसे मिली हुई देह का प्राकृतिक स्वभाव अशुद्ध होता है। परन्तु इससे " नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिमिः " (मनु. ४. १३७)- किसी को निराश नहीं होना चाहिये और एक ही जन्म में परम सिद्धि पा जाने के दुराग्रह में पड़ कर पाताल योगाभ्यास में अर्थात् इन्द्रियों का जवदन्ती दमन करने में ही सब यु पृथा खो नहीं देनी चाहिये । आत्मा को कोई जल्दी नहीं पढ़ी है, जितना भाज हो सके उतने ही योगवल को प्राप्त करके कर्मयोग का प्राचरण शुरू कर देना चाहिये, इससे धीरे धीरे बुद्धि अधिकाधिक साविक तथा शुद्ध होती जायगी. और कर्मयोगका यह स्वल्पाचरण ही नहीं, जिज्ञासात-नहट मेबैठे हुए मनुष्य की तरह, यागे ढकेलते ढकेलते अंत में आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, उसके प्रात्मा को पूर्णब्रह्म-प्राप्ति करा देगा। इसी लिये भगवान ने गीता में साफ कहा है कि कर्मयोग में एक विशेष गुण यह है कि उसका स्वल्प से भी स्वल्प याचरण कमी व्यर्थ नहीं जाने पाता (गी. ६. १५पर हमारी टीका देखो)। मनुष्य को उचित है कि वह केवल इसी जन्म पर ध्यान न देचार धीरज को न छोड़े, किन्तु निष्काम कर्म करने के अपने उद्योग को स्वतंत्रता से और धीरे धीरे यथाशक्ति जारी रखे । प्राक्तन-संस्कार के कारण ऐसा मालूम होता है कि प्रकृति की गाँठ हम से इस जन्म में बाज नहीं छूट सकती; परन्तु वही रन्धन कम फ्रम ले बढ़नेवाले कर्मयोग के अभ्यास से कल या दूसरे जन्मों में आप ही आप ढीला हो जाता है, और ऐसा होते होते " बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते" ७.. १६)- कभी न कभी पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होने से प्रकृति का वध या पराधीनता छूट जाती
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