कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २८३ निग्रह करने के लिये बुद्धि को धृति या धैर्य की सहायता मिलनी चाहिये (गी. ६.२५); और जागे अठारहवं अध्याय (१८.३३-३५) में पुद्धि की भाँति इति के भी-सात्विक, राजस और तामस-तीन नैसर्गिक भेद बतलाये गये हैं। इनमें से तामस और राजस को छोड़ कर पुति को साविक बनाने के लिये इन्द्रिय-निग्रह करना पड़ता है और इसी से छठवें अध्याय में इसका भी संक्षिप्त वर्णन किया है कि ऐसे इन्द्रिय-निमहाभ्यास-रूप योग के लिये उचित स्थल, भासन और आधार कौन कौन से हैं। इस प्रकार गीता (६.२५) में बतलाया गया है कि "शनैः शनैः" अभ्यास करने पर चित्त स्थिर हो जाता है, इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं और भागे कुछ समय के बाद (एकदम नहीं ) ग्रहात्मैश्य-शान होता है, एवं फिर " श्रात्मवन्त न कर्माणि नियनन्ति धनंजय". उस ज्ञान से कर्म-बन्धन छुट जाता है (गी. ४. ३८-४१) । परन्तु भगवान् एकान्त में योगाभ्यास करने का उपदेश देते है (गी. ६.१०), इससे गीता का तात्पर्य यह नहीं समझ लेना चाहिये कि संसार के सय व्यवहारों को छोड़ कर योगाभ्यास में ही सारी श्रायु यिता दी जावे | जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने पास की पूंजी से ही-चाहे वह बहुत थोड़ी ही क्यों न हो-पहले धीरे धीरे व्यापार करने लगता है और उसके द्वारा अन्त में अपार संपत्ति कमा लेता है, उसी प्रकार गीता के कर्मयोग का भी हाल है। अपने से जितना हो सकता है उतना ही इन्द्रियनिग्रह करके पहले कर्मयोग को शुरू करना चाहिये और इसी से अन्त में अधिकाधिक इन्द्रिय-निग्रह-सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है। तथापि चौराहे में बैठ कर भी योगाभ्यास करने से काम नहीं चल सकता, पयोंकि इससे बुद्धि को एकामता की जो सादत हुई होगी उसके घट जाने का भय होता है। इसलिये कर्मयोग का आचरण करते हुए कुछ समय तक नित्य या कमी कभी एकान्त का सेवन करना भी प्रावश्यक है (गी. ३. १०)। इसके लिये संसार के समस्त व्यवहारों को छोड़ देने का उपदेश भगवान ने कहीं भी नहीं दिया है। प्रत्युत सांसारिक व्यवहारों को निष्काम-बुद्धि से करने के लिये ही इन्द्रियनिग्रह का अभ्यास बतलाया गया है। और गीता का यही कथन है कि इस इन्द्रियनिग्रह के साथ साथ यघाशक्ति निष्काम कर्मयोग का भी आचरण प्रत्येक मनुष्य को हमेशा करते रहना चाहिये, पूर्ण इन्द्रिय-निमंह के सिद्ध होने तक राइ देखते बैठे नहीं रहना चाहिये । मन्युपनिपद में और महाभारत में कहा गया है कि यदि कोई मनुष्य बुद्धिमान और निग्रही हो, तो वह इस प्रकार के योगाभ्यास से छः महीने में साम्यबुद्धि प्राप्त कर सकता है (मै. ६.२८ मभा. शां. २३६.३२, अश्व, अनुगीता. १६,६६) । परन्तु भगवान् ने जिस सात्विक, सम या आत्मनिष्ट घुद्धि का वर्णन किया है, वह बहुतेरे लोगों को छः महीने में क्या, छः वर्ष में भी प्राप्त नहीं हो सकती; और इस अभ्यास के अपूर्ण रह जाने के कारण इस जन्म में तो पूरी सिदि होगी ही नहीं, परन्तु दूसरा जन्म ले कर फिर भी शुरू से वही अभ्यास करना पड़ेगा और उस जन्म का अभ्यास भी पूर्वजन्म के अभ्यास की भाँति ही अधूरा रह
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