कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २५६ और इस जन्म के भोग से प्रारम्ध-संचित का क्षय मृत्यु के समय हो जाता है। इसलिये उसे कुछ भी कर्म भोगना बाकी नहीं रह जाता है और यही सिद्ध होता है कि वह सब कमाँ से प्रर्थात् संसार-चक्र से मुक्त हो जाता है । यही सिद्धान्त गीता के इस वाक्य में कहा गया है कि "अपि चेत् सुदुराचारी भजते मामनन्यभाक् " (गी. ६.३०) यदि कोई बड़ा दुराचारी मनुष्य भी परमेश्वर का अनन्य भाव से सरण करेगा तो वह भी मुक्त हो जायगा; और यह सिद्धान्त संसार के अन्य सब धर्मों में भी ग्राह्य माना गया है। अनन्य भाव का यही अर्थ है कि परमेश्वर में मनुष्य की चित्तधृति पूर्ण रीति से जीन हो जाये । सरण रहे कि मुंह से तो ' राम राम ' बड़यड़ाते रहें और चित्तवृत्ति दूसरी ही ओर रहे, तो इसे अनन्य भाव नहीं कहेंगे। सारांश, परमेश्वर-ज्ञान की महिमा ही ऐसी है कि ज्योंही ज्ञान की प्राप्ति हुई, त्याही सब धनारूध-संचित का एकदम क्षय हो जाता है । यह अवस्था कभी भी प्राप्त हो, सदेव इष्ट ही है। परन्तु इसके साथ एक आवश्यक बात यह है कि मृत्यु के समय यह स्थिर अनी रहे, और यदि पहले प्रात न हुई हो तो कम से कम मृत्यु के समय अवश्य प्राप्त हो जाय । ऐसा न होने से, हमारे शास्त्रकारों के कथनानुसार, कुछ न कुछ वासना अवश्य ही बाकी रह जायगी जिससे पुनः जन्म लेना पड़ेगा और मोन भी नहीं मिलेगा। इसका विचार हो चुका कि कर्म-वन्धन क्या है, कर्म-नय किसे कहते हैं वह कैसे और कम होता है। अय प्रसंगानुसार इस बात का भी कुछ विचार किया जायगा कि जिनके कर्मफल नष्ट हो गये हैं उनको, और जिनके कर्म-अन्धन नहीं छटे हैं उनको मृत्यु के अनन्तर वैदिक धर्म के अनुसार कौन सी गति मिलती है। इसके संबंध में उप- निषदों में बहुत चर्चा की गई है (छ. ४. १५, ५. १०६ १.६.२.२-१६ को.१.२-३) जिसकी एकवाक्यता वेदान्तसूत्र के चौथे अध्याय के तीसरे पाद में की गई है। परन्तु इस सब चर्चा को यहाँ बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें केवल उन्हीं दो मागों का विचार करना है जो भगवद्गीता (८. २३-२७.) में कहे गये हैं। वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्ड और फर्मकाण्ड, दो प्रसिद्ध भेद हैं। कर्मकारास का मूल उद्देश यह है कि सूर्य, अमि, इन्द्र, वरुण, रुद्र इत्यादि वैदिक देवताओं का यज्ञ द्वारा पूजन किया जाये, उनके प्रसाद से इस लोक में पुत्र-पौत्र भादिसन्तति तथा गौ, अध, धन, धान्य आदि संपत्ति प्राप्त कर ली जावे और अन्त में मरने पर सद्- गति प्राप्त होवे । वर्तमान काल में यह यज्ञ-याग आदि श्रीतधर्म प्रायः लुप्त हो गया है, इससे उक्त उद्देश को सिद्ध करने के लिये लोग देव-भक्ति तथा दान-धर्म आदि शास्त्रोक्त पुण्य-कर्म किया करते हैं। ऋग्वेद से स्पष्टतया मालूम होता है कि प्राचीन काल में लोग, न केवल स्वार्थ के लिये बल्कि सब समाज के कल्याण के लिये भी, यश द्वारा ही देवताओं की श्राराधनाकिया करते थे । इस काम के लिये जिन इन्द्र आदि देवताओं की अनुकूलता का सम्पादन करना आवश्यक है, उनकी स्तुति से ही ऋग्वेद के सूक्त भरे पड़े हैं और स्थल-स्थल पर ऐसी प्रार्थना की गई है, कि “ हे देव ! गी.र. ३७
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