२५ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । धर्म नहीं छोड़ती, उसी तरह ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान के होते ही कर्मदय-रूप परिणाम के होने से कालाघधि की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती-ज्योंही ज्ञान हुआ कि उसी क्षण कर्म-क्षय हो जाता है। परन्तु अन्य सत्र कालों से मरण-काल इस सम्बन्ध में अधिक महत्व का माना जाता है। क्योंकि यह वायु के बिलकुल अन्त का काल है, और इसके पूर्व किसी एक काल में ब्रह्मज्ञान से अनारख्ध-संचित का यदि क्षय हो गया हो तो भी प्रारब्ध नष्ट नहीं होता। इसलिये यदि यह ब्रह्मज्ञान अन्त तक एक समान स्थिर न रहे तो प्रारूप कर्मानुसार मृत्यु के पहले जो जो अच्छे या बुरे कर्म हॉग वे सव सकार हो जावेंगे और उनका फल भोगने के लिये फिर भी जन्म लेनां ही पड़ेगा। इसमें सन्देह नहीं कि जो पूरा जीवन्मुक्त हो जाता है उसे यह भय कदापि नहीं रहता; परन्तु जब इस विषय का शाखदृष्टि से विचार करना हो तत्र इस बात का भी विचार अवश्य कर लेना पड़ता है, झिमृत्यु के पहले जोग्रलज्ञान हो गया था वह कदाचित् मरण-काल तक स्थिर नरह सके ! इसी लिये शावकारमृत्यु से पहले के काल की अपेक्षा मरण-काल ही को विशेष महत्त्वपूर्ण मानते हैं, और यह कहते हैं कि इस समत्र यानी मृत्यु के समय ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान का अनुभव अवश्य होना चाहिये, नहीं तो मोक्ष नहीं होगा। इसी अभिप्राय से उपनिपड़ों के अाधार पर गीता में कहा गया है कि अन्तकाल में मेरा अनन्य भाव से सरण करने पर मनुष्य मुक्त होता है" (गी.८.५)। इस सिद्धान्त के अनुसार कहना पड़ता है कि यदि कोई दुराचारी मनुष्य अपनी सारी प्रायु दुराचरण में व्यतीत करे और केवल अन्त समय में ब्रह्मज्ञान हो जाये,तो वह भी नुक हो जाता है। इसपर कितनेही लोगों का कहना है, कि यह वात युक्तिसङ्गत नहीं। परन्तु थोडासा विचार करने पर मालूम होगा कि यह वात अनुचित नहीं कही जा सकती-यह बिलकुल सत्य और सयुक्तिक है। वस्तुतः यह संभव नहीं कि जिसका सारा जन्म दुराचार में बीता हो, उसे केवल मृत्यु-समय में ही ब्रह्मज्ञान हो जाये । अन्य सब बातों के समान ही ब्रह्मनिष्ट होने के लिये सन को आदत डालनी पड़ती है और जिसे इस जन्म में एक बार भी ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान का अनुभव नहीं हुआ , उसे केवल मरण- काल में ही उसका एकदम हो जाना परम दुर्घट या असम्भव ही है । इसी लिये गीता का दूसरा महत्वपूर्ण कयन यह है कि मन को विषय-वासना-रहित बनाने के लिये प्रत्येक मनुष्य को सदैव अभ्यास करते रहना चाहिये, जिसका फल यह होगा कि अन्तकाल में भी यही स्थिति बनी रहेगी और मुक्ति भी अवश्य हो जायगी (गी.८.६,७ तथा २.७२) । परन्तु शास्त्र की छानबीन करने के लिये मान लीजिये कि पूर्व संस्कार धादि कारणों से किसी मनुष्य को केवल मृत्यु-समयमें हीब्रह्मज्ञान हो गया। निस्सदेह ऐसाउदाहरण लाखोंऔर करोड़ोमनुप्यों में एक-आधही मिल सकेगा। परन्तु, चाहे ऐसा उदाहरण मिले या न मिले, इस विचार को एक और रख कर हम यही देखना है कि यदि ऐसी स्थिति प्रात हो जाय तो क्या होगा ।ज्ञान चाहे मरण- काल में ही क्यों न हो,परन्तु इससे मनुष्य के अनास्य-संचित का क्षय होता ही है।