पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३३३

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२६४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किंचेह करोत्ययम् । तस्माल्लोकात्पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे ।। * इस लोक में जो यज्ञ-याग यादि पुण्य कर्म किये जाते हैं उनका फल स्वर्गीय उप. भोग से समाप्त हो जाता है और तब यज्ञ करनेवाले कर्मकायढी मनुष्य को स्वर्ग- लोक से इस कर्मलोक अर्यात भूलोक में फिर भी आना पड़ता है। छांदोग्योपनिषद (५.१०.३-६) में तो स्वर्ग से नीचे आने का मार्ग भी यतलाया गया है। भगवद्गीता में "कामात्मानः स्वर्गपराः" तथा " गुण्यविषया वेदाः" (गी. २ ४३,४५) इस प्रकार कुछ गौणत्य-सूचक जो वर्णन किया गया है वह इन्हीं कर्मकायढी लोगों को लक्ष्य करके कहा गया है और नवें अध्याय में फिर भी स्पष्ट वया कहा गया है कि " गतागतं कामकामा लमंत" (गी. ६.२१)-उन्हें स्वर्गलोक और इस लोक में चार चार आना जाना पड़ता है। यह आवागमन झान प्राप्ति के यिना रुक नहीं सकता। जब तक यह रुक नहीं सकता तब तक मात्मा को सचा समाधान, पूर्णावस्था तथा मोक्ष मी नहीं मिल सकता। इस- लिये गीता के समस्त उपदेश का सार यही है कि यज्ञ-याग आदि की कौन कहे, चातुर्वर्य के सब कमों को भी तुम प्रमात्मक्य-ज्ञान से तथा साम्यबुदि से मालकि छोड़ कर करते रहो-यस, इस प्रकार कर्मचक्र को जारी रख कर भी तुम मुक ही बने रहोगे (गी. १८.५,६) ।किसी देवता के नाम से तिल, चावल या किसी पशु को " इदं अमुक देवतायै न मम" कह कर अग्नि में हवन कर देने से ही कुछ यज्ञ नहीं हो जाता । प्रत्यक्ष पशु को मारने की अपेक्षा, प्रत्येक मनुष्य के शरीर में काम-क्रोध आदि जो अनेक पशुवृत्तियाँ हैं, उनका साम्यवृदिल्प संय. माप्ति में होम करना ही अधिक श्रेयस्कर यज्ञ है (गी. ४. ३३) । इसी अभिप्राय से गीता में तथा नारायणीय धर्म में भगवान ने कहा है कि मैं यहों में जपयज्ञ"अर्थात् श्रेष्ठ हूँ (गी. १०. २५, ममा. शां. ३. ३७) । मनुस्मृति (२.८७) में भी कहा गया है कि ब्राह्मण और कुछ करे या न करे, परन्तु वह केवल जप से ही सिद्धि पा सकता है। प्राप्ति में आहुति दानते समय न मम' (यह वस्तु मेरी नहीं है) कह कर उस वस्तु से अपनी ममत्वादि का त्याग दिखलाया जाता है-यही यज्ञ का मुख्य तत्व है और दान यादिक कमों का भी यही चीज है, इसलिये इन कमों की योग्यता भी यज्ञ के बराबर है। अधिक क्या कहा जाय, जिनमें अपना तनिक भी स्वार्थ नहीं है, ऐसे कमो को शुद्ध बुद्धि से करने पर वे यज्ञ ही कहे जा सकते हैं। यज्ञ की इस ब्याख्या को स्वीकार करने पर जो कुछ कर्म निष्काम बुद्धि से किये जायें वे सब एक महायज्ञ ही होंगे और द्रव्यमय यज्ञ को लागू होने इस मंत्र के दूसरे चरण पढ़ते समय 'पुनरेति' और ' अस्मै 'ऐशा पदच्छेद करके पढ़ना चाहिये, तब इस चरण में अक्षरों की कमी नहीं मालूम होगी । वैदिक ग्रन्यों को पढ़ते समय ऐसा बहुधा करना पड़ता है।