पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३३४

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कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २६५ वाला मीमांसको का यह न्याय कि यज्ञार्थ फिये गये कोई भी कर्म बंधक नहीं होते' उन सब निष्काम कर्मों के लिये भी उपयोगी हो जाता है। इन कमी को करते समय फलाशा भी छोड़ दी जाती है जिसके कारण स्वर्ग का आना-जाना भी छूट जाता है और इन कर्मों को करने पर भी अन्त में मोक्षरूपी सदति मिल जाती है (गी. ३. १)। सारांश यह है कि संसार यज्ञमय या कर्ममय है सही; परन्तु कर्म करनेवालों के दो वर्ग होते हैं। पहले वे जो शास्त्रोक्त रीति से, पर फलाशा रख कर, कर्म किया करते हैं (कर्मकांडी लोग); और दूसरे वे जो निष्काम घुद्धि से, केवल कर्तव्य समझ कर, कर्म किया करते हैं (ज्ञानी लोग) । इस संबंध में गीता का यह सिद्धान्त है कि कर्मकांटियों को स्वर्ग-प्राप्तिरूप अनित्य फल मिलता है और ज्ञान से अर्याद निष्कामबुद्धि से कर्म करनेवाले ज्ञानी पुरुषों को मोक्षरूपी नित्य फल मिलता है। मौन के लिये कर्मों का छोड़ना गीता में कहीं भी नहीं बतलाया गया है। इसके विपरीत अठारहवें अध्याय के प्रारंभ में पटतया गतला दिया है कि " त्याग- छोड़ना' शब्द से गीता में कर्मत्याग कभी भी नहीं समझना चाहिये, किन्तु उसका अर्थ फलत्याग' ही सर्वन विवक्षित है। इस प्रकार कर्मकांदियों और कर्मयोगियों को भिज भिन्न फल मिलते हैं, इस कारण प्रत्येक को मृत्यु के बाद भिन्न भिन्न लोकों में भिन्न भिन मागों से जाना पड़ता है। इन्हीं मार्गों को कम से 'पितृयाण और 'देवयान' कहते हैं (शा. १७. १५, १६); और उपनिपदों के आधार से गीता के आठवें अध्याय में इन्हीं दोनों मागों का वर्णन किया गया है। वह मनुष्य, जिसको ज्ञान हो गया है- और यह ज्ञान कम से कम अन्तकाल में तो अवश्य ही हो गया हो (गी. २.७२)-देहपात होने के अनन्तर और चिता में शरीर जल जाने पर, उस अनि से ज्योति (ज्वाला) दिवस, शुझपन और उत्तरायण के छः महीने में, प्रयाण करता हुआ यमपद को जा पहुँचता है तथा वहाँ उसे मोक्ष प्राप्त होता है इसके कारण वह पुनः जन्म ले कर मृत्युलोक में फिर नहीं लौटता; परन्तु जो केवल कर्मकांटी है अर्थात् जिसे ज्ञान नहीं है, वह उसी अग्नि से धुली, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छः महीने, इस क्रम से प्रयाण करता हुशा चन्द्रलोक को पहुंचता है और अपने किये हुए सय पुण्य-कमी को भोग करके फिर इस लोक में जन्म लेता है। इन दोनों मार्गों में यही भेद है (गी. ८. २३-२७) । ज्योति' (ज्याला)शब्द के बदले उपनिषदों में अर्चि' (ज्वाला)शब्द का प्रयोग किया गया है, इससे पहले मार्ग को अचिरादि' और दूसरे को धूम्रादि मार्ग भी कहते हैं। हमारा उत्तरायण उत्तर ध्रुवस्थल में रहनेवाले देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात्रि है। इस परिभाषा पर ध्यान देने से मालूम हो जाता है कि इन दोनों मार्गों में से पहला अचिरादि (ज्योतिरादि) मार्ग प्रारम्भ से अन्त तक प्रकाशमय है और दूसरा धूम्रादि मार्ग अन्धकारमय है । ज्ञान प्रकाशमय है और परबहा " ज्योतिषां ज्योतिः" (गी. १३. १७ )-तेजों का तेज है इस कारण देहपात