पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३४६

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संन्यास और कर्मयोग । ३०७ मार्ग प्रारम्भ से ही स्वतन्त्र हैं। इससे यह भी देख पड़ता है, कि गीता के साम्प्र- दायिक टीकाकारों ने कर्ममार्ग को जो गौणत्व देने का प्रयत्न किया है, वह केवल साम्प्रदायिक आग्रह का परिणाम है और इन टीकाओं में जो स्थान-स्थान पर यह तुर्रा लगा रहता है, कि कर्मयोग ज्ञानप्राप्ति अथवा संन्यास का केवल साधनमात्र है, वह इनकी मनगढन्त है- वास्तव में गीता का सच्चा भावार्थ वैसा नहीं है ।गीता पर जो संन्यासमार्गीथ टीकाएँ हैं उनमें, हमारी समझ से, यही मुख्य दोप है । और, टीकाकारों के इस साम्प्रदायिक आग्रह से छूटे बिना कभी सम्भव नहीं, कि गीता के वास्तविक रहस्य का योध हो जावे । यदि यह निश्चय करें, कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों स्वतन्त्र रीति से मोक्षदायक हैं-एक दूसरे का पूर्वाण नहीं तो भी पूरा निर्वाह नहीं होता । क्योंकि, यदि दोनों मार्ग एक ही से मोक्षदायक हैं, तो कहना पड़ेगा, कि जो मार्ग इमें पसन्द होगा उसे हम स्वीकार करेंगे । और फिर यह सिद्ध न हो कर कि अर्जुन को युद्ध ही करना चाहिये, ये दोनों पक्ष संभव होते हैं, कि भगवान् के उपदेश से परमेश्वर का ज्ञान होने पर भी चाहे वह अपनी रुचि के अनुसार युद्ध करे अथवा लड़ना- मरना छोड़ कर संन्यास ग्रहण कर ले । इसी लिये अर्जुन ने स्वाभाविक रीति से यह सरल प्रश्न किया है, कि " इन दोनों मार्गों में जो अधिक प्रशस्त हो, वह एक ही निश्चय से मुझे बतलाओ" (गी. ५.१) जिससे आचरण करने में कोई गड़बड़ न हो । गीता के पांचवें अध्याय के प्रारम्भ में इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न कर चुकने पर अगले श्लोकों में भगवान् ने स्पष्ट उत्तर दिया है, कि “संन्यास और कर्म- योग दोनों मार्ग निःश्रेयस अर्थात् मोक्षदायक हैं अथवा मोक्ष दृष्टि से एक सी योग्यता के हैं तो भी दोनों में कर्मयोग की श्रेष्ठता या योग्यता विशेप (विशिष्यते) (गी. ५.२); और यही श्लोक हमने इस प्रकरण के प्रारम्भ में लिखा है। कर्मयोग की श्रेष्ठता के सवन्ध में यही एक वचन गीता में नहीं है। किन्तु अनेक वचन है। जैसे “ तस्माद्योगाय युज्यस्व" (गी. २.५०)- इसलिये तू कर्मयोग को ही स्वीकार कर; "मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि " (गी. २.४७)-कर्म न करने का आग्रह मत रख यस्त्विद्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन | कर्मेन्द्रियः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ कर्मों को छोड़ने के झगड़े में न पड़ कर " इन्द्रियों को मन से रोक कर अनासक्त बुद्धि के द्वारा कर्मेंद्रियों से कर्म करनेवाले की योग्यता - विशिष्यते' अर्थात् विशेष है (गी. ३.७); क्योंकि, कभी क्यों न हो, "कर्म ज्यायो एकमणः" अकर्म की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ है (गी. ३.८); "इससे तू कर्म ही कर" (गी. ४. १५) अथवा “ योग- मातिष्ठोत्तिष्ठ" (गी. ४. ४२)-कर्मयोग को अङ्गीकार कर युद्ध के लिये खड़ा हो; " (योगी) ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक: " -- ज्ञान मार्गवाले (संन्यासी)की 35