पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३४७

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३०८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाच । अपेक्षा कमयोगी की योग्यता अधिक है, " तस्माद्योगी भवार्जुन” (गी. ६.६)- इसलिये, हे अर्जुन ! तू (कर्म) योगी हो अथवा " मामनुस्मर युद्धध च" (गी. ८.७)-मन में मेरा स्मरण रख कर युद्ध कर; इत्यादि अनेक वचनों से गीता में अर्जुन को जो उपदेश स्थान-स्थान पर दिया गया है, उसमें भी संन्यास या प्रकर्म की अपेक्षा कर्मयोग की अधिक योग्यता दिखलाने के लिये, 'ज्यायः', ' अधिकः,' और विशिष्यते' इत्यादि पद स्पष्ट हैं । अठारहवें अध्याय के उपसंहार में भी भगवान् ने फिर कहा है, कि “नियत कों का संन्यास करना उचित नहीं है, आसक्ति-विरहित सब काम सदा करना चाहिये, यही मेरा निश्चित और उत्तम मत ई" (गी. १८.६, ७)। इससे निर्विवाद सिद्ध होता है, कि गीता में संन्यास-मागे की अपेक्षा कर्मयोग को ही श्रेष्ठता दी गई है। परन्तु, जिनका साम्प्रदायिक मत है, कि संन्यास या भाक्ति ही भन्तिम और श्रेष्ठ कन्य है, कर्म तो निरा चित्तशुद्धि का साधन है-वह मुख्य साध्य या कर्तव्य नहीं हो सकता- उन्हें गीता का यह सिद्धान्त कैसे पसंद होगा यह नहीं कहा जा सकता कि उनके ध्यान में यह बात आई ही न होगी, कि गीता में संन्यास मार्ग की अपेक्षा कर्मयोग को स्पष्ट रीति से अधिक महत्व दिया गया है। परन्तु, यदि यह वात मान ली जाती, तो यह प्रगट ही है, कि उनके सम्प्रदाय की योग्यता कम हो जाती । इसी से पांचवें अध्याय के आरम्भ में, अर्जुन के प्रश्न और भगवान् के घर सरल, सयुक्तिक और स्पष्टार्थक रहने पर भी, साम्प्रदायिक टीकाकार इस घर में पड़ गये हैं कि इनका कैसा क्या अर्थ किया जाय । पहली अड़चन यह थी, कि 'संन्यास और कर्मयोग इन दोनों मार्गों में श्रेष्ठ कौन है?' यह प्रम ही दोनों मागों को स्वतन्त्र माने विना उपस्थित हो नहीं सकता। क्योंकि, टीकाकारों के कथनानुसार, कर्मयोग यदि ज्ञान का सिर्फ पूर्वाङ्ग हो, तो यह बात स्वयंसिद्ध है कि पूर्वा गौण है और ज्ञान अयवा संन्यास ही श्रेष्ठ है । फिर प्रश्न करने के लिये गुंजाइश ही कहाँ रहो? अच्छा; यदि मन को उचित मान ही लें, तो यह स्वीकार करना पड़ता है, कि ये दोनों मार्ग स्वतन्त्र हैं और तव तो यह स्वीकृति इस कपन का विरोध करेगी, कि केवल हमारा सम्प्रदाय ही मोक्ष का मार्ग है ! इस अड़चन को दूर करने के लिये इन टीकाकारों ने पहले तो यह तुर्रा लगा दिया है कि अर्जुन का प्रश्नही ठीक नहीं है और फिर यह दिखनाने का प्रयत्न किया है कि भगवान् के उत्तर का तात्पर्य भी वैसा ही है ! परन्तु इतना गोलमाल करने पर भी भगवान् के इस स्पष्ट उत्तर-'कर्मयोग की योग्यता अथवा श्रेष्ठता विशेष है' (गी.५.२)- का अर्थ ठीक ठीक फिर भी लगा ही नहीं! तब अन्त में अपने मन का, पूर्वापर संदर्भ के विल्द, दूसरा यह तुर्रा लगा कर इन टीकाकारों को किसी प्रकार अपना समाधान कर लेना पड़ा, कि " कर्मयोगो विशिप्यते " -- कर्मयोग की योग्यता विशेष है। यह वचन कर्मयोग की पोली प्रशंसा करने के लिये यानी अर्थवादात्मक है, वास्तव भगवान् के मत में भी संन्यासमार्ग ही श्रेष्ठ है (गी. शामा. ५. २.६.१, २६