पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३४८

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संन्यास और कर्मयोग। ३०६ १८.११ देखो)। शाहरभाष्य में ही क्यों, रामानुजभाप्य में भी यह झोक कर्म- योग की केवल प्रशंसा करनेवाला-अर्थवादात्मक-ही माना गया है (गी. रामा. ५.१) । रामानुजाचार्य यद्यपि अद्वती न थे, तो भी उनके मत में भक्ति ही मुख्य साध्य वस्तु है। इसलिये कर्मयोग ज्ञानयुक्त भक्ति का साधन ही हो जाता है (गी. राभा. ३. १ देखो)। मूल ग्रन्थ से टीकाकारों का सम्प्रदाय भिन्न है। परन्तु टीकाकार इस हद समझ से उस ग्रन्थ की टीका करने लगे, कि हमारा मार्ग या सम्प्रदाय ही भूल भ्रन्थ में वर्णित है । पाठक देखें, कि इससे भूल ग्रन्थ की कैसी खींचातानी हुई है। भगवान् श्रीकृष्ण या व्यास को, संस्कृत भाषा में स्पष्ट शब्दों के द्वारा, क्या यह कहना न पाता था, कि अर्जुन ! तेरा प्रश्न ठीक नहीं है। परन्तु ऐसा न करके जव अनेक स्थलों पर स्पष्ट रीति से यही कहा है, कि “ कर्मयोग ही विशेष योग्यता का है" तब कहना पड़ता है कि साम्प्रदायिक टीकाकारों का उल्लिखित अर्थ सरल नहीं है। और, पूर्वापर संदर्भ देखने से भी यही अनुमान ढ़ होता है। क्योंकि गीता में ही, अनेक स्थानों में ऐसा वर्णन है, कि ज्ञानी पुरुष कर्म का संन्यास न कर ज्ञान प्राप्ति के अनन्तर भी अनासक्त धुद्धि से अपने सब व्यवहार किया करता है (गी. २.६४, ३. १६, ३. २५; १८.६ देखो)। इस स्थान पर श्री शकराचार्य ने अपने भाष्य में पहले यह प्रश्न किया है, कि मोक्ष ज्ञान से मिलता है या ज्ञान और कर्म के समुश्चम से; और फिर यह गीतार्थ निश्चित किया है, कि केवल ज्ञान से ही सत्र कर्म दग्ध हो कर मोक्ष-प्राप्ति होती है, मोक्ष प्राप्ति के लिये कर्म की आवश्यकता नहीं। इससे आगे यह अनुमान निकाला है, कि 'जय गीता की दृष्टि से भी मोक्ष के लिये कर्म की आवश्यकता नहीं है, तव चित्त-शुद्धि हो जाने पर सब कर्म निरर्थक हैं ही, और वे स्वभाव से ही बन्धक अर्थात् ज्ञानविरुद्ध हैं, इस- लिये ज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर ज्ञानी पुरुष को कर्म छोड़ देना चाहिये'-यही मत भगवान् को भी गीता में प्राय है। ज्ञान के अनन्तर ज्ञानी पुरुष को भी कम करना चाहिये। इस मत को 'ज्ञानकर्मसमुच्चय-पक्ष ' कहते हैं और श्रीशङ्कराचार्य की उपर्युक्त दलील ही उस पक्ष के विरुद्ध मुख्य आक्षेप है। ऐसा ही युक्तिवाद मध्वाचार्य ने भी स्वीकृत किया है (गी. माभा. ३. ३१ देखो)। हमारी राय में यह युक्तिवाद समाधानकारक अथवा निरुत्तर नहीं है। क्योंकि, (१) यद्यपि काम्य कर्म पन्धक हो कर ज्ञान के विरुद्ध हैं, तथापि यह न्याय निष्काम कर्म को लागू नहीं; और (२) ज्ञान-प्रांति के अनन्तर मोक्ष के लिये कर्म अना- वश्यक भले हुआ करें, परन्तु उससे यह सिद्ध करने के लिये कोई बाधा नहीं पहुँ- चती कि अन्य सबल कारणों से ज्ञानी पुरुष को ज्ञान के साथ ही फर्म करना आवश्यक है । मुमुक्षु का सिर्फ चित्त शुद्ध करने के लिये ही संसार में कर्म का उपयोग नहीं है और न इसी लिये कर्म उत्पन ही हुए हैं। इसलिये कहा जा सकता है, कि मोक्ष के अतिरिक अन्य कारणों के लिये स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले फर्मसृष्टि के समस्त व्यवहार निष्काम बुद्धि से करते ही रहने की ज्ञानी पुरुष को