पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३५४

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संन्यास और कर्मयोग। कर " इन शब्दों से प्रगट होता है कि यह तीसरी निष्ठा, पहली दो निशाओं में से, किसी भी निष्ठा का अङ्ग नहीं-प्रत्युत स्वतन्त्र रीति से वर्णित है । वेदान्तसून (३. ४. ३२-३५) मैं भी जनक की इस तीसरी निष्ठा का उल्लेख किया गया है और भगवद्गीता में जनक की इसी तीसरी निष्टा का -इसी में भक्ति का नया योग करके वर्णन किया गया है। पान्तु गीता का तो यह सिद्धांत है, कि मीमांसकों का केवल कर्मयोग अर्थात् ज्ञान-विरहित कर्ममार्ग मोक्षदायक नहीं है, वह केवल स्वर्गप्रद है (गी, २.४२-४४६. २१); इसलिये जो मार्ग मोक्षप्रद नहीं, उसे निष्ठा ' नाम ही नहीं दिया जा सकता। क्योंकि, यह व्याख्या सभी को स्वीकृत है, कि जिससे अन्त में मान मिले उसी मार्ग को 'निष्ठा' कहना चाहिये । प्रत- एव, सब मतों का सामान्य विवेचन करते समय, यद्यपि जनक ने तीन निष्ठाएँ यतलाई है, तथापि मीमांसकों का केवल (अर्थात् ज्ञानावरहित) कर्ममार्ग निष्ठा' में से पृथक् कर सिद्धान्त-पक्ष में घिर होनेवाली दो निष्टाएँ ही गीता के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में कही गई है (गी. ३.३)। केवल ज्ञान (सांख्य) और ज्ञानयुक्त निष्काम कर्म (योग) यही दो निष्ठा हैं। और, सिद्धांतपक्षीय इन दोनों निष्ठाओं में से, दूससी (अर्थात्, जनक के कथनानुसार तीसरी) निष्ठा के समर्थनार्थ यह भाचीन उदाहरण दिया गया है कि “कर्मणैव हि संसिन्द्विमास्थिता जनकादयः"-जनक प्रभृति ने इस प्रकार कर्म करके ही सिद्धि पाई है । जनक आदिक क्षत्रियों की बात छोड़ दें, तो यह सर्वश्रुत है ही कि व्यास ने विचित्रवीर्य के वंश की रक्षा के लिये एतराष्ट्र और पारद्ध. दो क्षेत्रज पुन निर्माण किये थे और तीन वर्ष तक निरन्तर परिश्रम करके संसार के उद्वार के निमित्त उन्होंने महाभारत भी लिखा है एवं कलियुग में स्मार्त अर्थान संन्यासमार्ग के प्रवर्तक श्रीशङ्कराचार्य ने भी अपने अलौकिक ज्ञान तथा उद्योग से धर्म-संस्थापना का कार्य किया था। कहीं तक कह, जब स्वयं ग्रामदेव कर्म काने के लिये प्रवृत्त हुए, तभी सृष्टि का भारम्भ हुआ है। ब्रह्मदेव से ही मरीचि प्रभृति सात मानस पुत्रों ने उत्पन्न हो कर संन्यास नले, सृष्टिक्रम को जारी रखने के लिये सरगा पर्यंत प्रवृत्तिमार्ग को ही अङ्गीकार किया; और सनत्कुमार प्रभृति दूसरे सात मानस पुन जन्म से ही विरक्त अर्थात् निवृत्तिपंथी हुए-इस कथा का उल्लेख महाभारत में वर्णित नारायगीयधर्म-निरूपण में है (मभा. शां. ३३६ और ३४०)। अमज्ञानी पुरुषों ने और ब्रह्मदेव ने भी, कर्म करते रहने के ही इस प्रवृत्तिमार्ग को क्यों अङ्गीकार किया? इसकी उपपत्ति वेदान्त- सूत्र में इस प्रकार दी है “ यावदधिकात्मवस्थितिराधिकारिणा" (वैसू. ३. ३. ३२)-जिसका जो ईश्वरनिर्मित अधिकार है, उसके पूरे न होने तक, कार्यों से छुट्टी नहीं मिलनी । इस उपपत्ति की जाँच आगे की जायेगी। उपपत्ति कुछ ही क्यों न हो, पर यह यात निर्विवाद है, कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों पन्थ, ब्रह्मज्ञानी पुरुषों में, संसार के प्रारम्भ से प्रचलित हैं। इससे यह भी प्रगट है, कि इनमें से किसी की श्रेष्ठता का निर्णय सिर्फ आचार की ओर ध्यान दे कर किया नहीं जा सकता।