पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३५५

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6 गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाब। इस प्रकार, पूर्वाचार द्विविध होने के कारण केवल आचार से ही यद्यपि यह निर्णय नहीं हो सकता, कि निवृत्ति श्रेष्ठ है या प्रवृत्ति, तथापि संन्यासमार्ग के लोगों की यह दूसरी दलील है कि- यदि यह निर्विवाद है कि विना कर्म-बन्ध से छुटे मोक्ष नहीं होता, तो ज्ञान-प्राप्ति हो जाने पर प्णामूलक की का झगड़ा, जितनी जल्दी हो सके, तोड़ने में ही श्रेय है। महाभारत के शुकानुशासन में इसी को शुकानुप्रश्न' भी कहते हैं -संन्यासमार्ग का ही प्रतिपादन है । वहाँ शुक ने व्यासजी से पूछा है- यदिदं वेदवचनं कुरु फर्म त्यजेति च । का दिशं विद्यया यान्ति का च गच्छन्ति कर्मणा।। " वेद, कर्म करने के लिये भी कहता है और छोड़ने के लिये भी तो अब मुझे बत- लाइये, कि विद्या से अर्थात् कर्मरहित ज्ञान से और केवल कर्म से कौन सी गति मिलती है ?" (शां. २४०.१) इसके उत्तर में व्यासजी ने कहा है- कर्मणा वध्यते जन्तुविद्यया तु प्रमुच्यते । तस्मात्कर्म न कुर्वति यतयः पारदर्शिनः ॥ "कर्म से प्राणी बंध जाता है और विद्या से मुक्त हो जाता है। इसी से पारदर्शीयति अथवा संन्यासी कर्म नहीं करते" (शां. २४०.७)। इस श्लोक के पहले चरण का विवेचन हम पिछले प्रकरण में कर आये हैं। “कर्मगा वध्यते जंतुविधया तु प्रमु- च्यते " इस सिद्धांत पर कुछ वाद नहीं है। परन्तु स्मरण रहे किवहाँ यह दिखलाया है, कि " कर्मणा बध्यते " का विचार करने से सिद्ध होता है कि जड़ अथवा चेतन कम किसी को न तो बाँध सकता है और न छोड़ सकता है। मनुष्य फलाशा से अथवा अपनी आसक्ति से कमी में बंध जाता है। इस आसक्ति से अलग हो कर वह यदि केवल वाह्य इन्द्रियों से कर्म कर, तब भी वह मुक्त ही है । रामचन्द्रजी, इसी अर्थ को मन में ला कर, अध्यात्म रामायण (२. ४. ४२) में लक्ष्मण से कहते हैं, कि- प्रवाहपतितः कार्य कुर्वन्नपि न लिप्यते । बाह्ये सर्वत्र कर्तृत्वमावन्नपि राघव ॥ " कर्ममय संसार के प्रवाह में पड़ा हुआ मनुष्य बाहरीसब प्रकार के कर्तव्य-कर्म करके भी अलिस रहता है।" अध्यात्मशास्त्र के इस सिद्धान्त पर ध्यान देने से देख पड़ता है, कि कर्मों को दुःखमय मान कर उनके त्यागने की आवश्यकता ही नहीं रहती; मन को शुद्ध और सम करके फलाशा छोड़ देने से ही सब काम हो जाता हैं। तात्पर्य यह कि, पिज्ञान और काम्य कर्म का विरोध हो, तथापि निष्काम कर्म और ज्ञान के बीच कोई भी विरोध हो नहीं सकता। इसी से अनुगीता में " तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति "-अतएव कर्म नहीं करते-इस वाक्य के बदले, तस्मात्कर्मसु निःस्नेहा ये केचित्पारदर्शिनः ।