पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३७०

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संन्यास और फर्मयोग। निष्काम धुद्धि से कर्मयोग करने की प्रत्या शिक्षा देनाज्ञानी पुरुष का फर्सन्य(सोंग नहीं) हो जाता है। अतएव गीता का कथन है कि उसे (ज्ञानी पुरुष को ) कर्म छोड़ने का अधिकार कभी प्राप्त नहीं होता; अपने लिये न सही, परन्तु लोकसंग्रहार्य चातुर्वर्य के सय कर्म प्राधिकारानुसार उसे करना ही चाहिये । फिन्तु संन्यासमार्गयालों का मत है, फि ज्ञानी पुरुष को चातुर्वण्र्य के कर्म निजाम पुदि से करने की भी कुछ जरूरत नहीं-यही क्यों करना भी नहीं चाहिये; इसलिये इस सम्प्रदाय के रीका- कार गीता के "ज्ञानी पुरुष को लोकपमहापं कर्म करना चाहिये इस सिद्धान्त का कुछ गड़बड़ अर्थ कर प्रत्यक्ष नहीं तो पर्याय से, यह कहने के लिये तैयार से हो गये हैं, कि स्वयं भगवान सेंग का उपदेश फरते हैं । पूर्वापर सन्दर्भ से प्रगट है, कि गीता के लोकसंग्रह शब्द का यह दिलमिल या पोचा अर्थ सच्चा नहीं गीता को यह मत ही मंजूर नहीं. कि ज्ञानी पुरुष को कर्म छोड़ने का अधिकार माह है। और, इसके सुबूत में गीता में जो कारण दिये गये हैं, उनमें लोकसंग्रह एक मुख्य फारण है। इसलिये, यह मान कर कि शानी पुरुष के कर्म छूट जाते हैं, लोक-संग्रह पद का दोगी अर्थ करना सर्वथा अन्याय्य है। इस जगत् में मनुष्य केवल अपने ही लिये नहीं उत्पन टुमा है । यह सय है, कि सामान्य लोग नासमझी से स्वार्थ में भी फंसे रहते हैं परन्तु "सर्वभूतरुपमात्मानं सर्वभूतानि घात्मनि" (गी. ६.२८)- मैं सय भूतों में है और सब भूत मुझ में है इस रीति से जिसफो समस्त संसार झी प्रात्मभूत हो गया है, उसका भपने मुख से यह कहना शान में यहा लगाना है, कि “ मुझे तो मोक्ष मिल गया, अय यदि जोग दुःखी हो, तो मुझे इसकी क्या परपा!"ज्ञानी पुरप का आत्मा क्या कोई स्वतंत्र व्यक्ति उसके सामा पर जय तक अज्ञान का पर्दा पड़ा था, तब तक 'अपना' और 'पराया' यह भेद कायम था। परन्तु शान-प्राप्ति के बाद सय लोगों का प्रात्मा ही उसका मात्मा है। इसी से योग. वासिष्ट में राम से वसिष्ठ ने कहा है- यावल्लोफपरामशों निरूढो नास्ति योगिनः। तावद्दसमाधित्वं न भवत्येव निर्मलम् ॥ "जय तक लोगों के परामर्श लेने का (अर्थात् लोकसमा फा) काम थोड़ा भी याफी है--समाप्त नहीं हुआ है-तप तक यह कभी नहीं कह सकसे, कि योगारूढ़ पुरुष की स्थिति निर्दोष है" (यो. ६. पू. १२८.६७) । फेवल अपने ही समाधि-सुख में दूध जाना मानो एक प्रकार से अपना ही स्वार्थ साधना है । संन्यासमार्गवाले इस बात की और दुर्लक्ष करते हैं, यही उनकी युक्ति प्रयुक्तियों का मुख्य दोप है। मगवान् की अपेक्षा किसी का भी अधिक ज्ञानी, अधिक निष्काम या अधिक योगा- रूढ़ होना शक्य नहीं। परन्तु जब स्वयं भगवान भी " साधुओं का संरक्षण, दुई का नाश बार -संस्थापना " ऐसे जोकसंग्रह के काम करने के लिये ही समय समय पर अवतार लेते हैं (गी. ४.८), तप लोकसङ्ग्रह के कर्सग्म को छोड़ येमेनाले शनी पुरुष का यह कहना सर्वथा भनुचित है कि जिस परमेश्वर ने इन