गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। सप लोगों को उत्पन्न किया है, वह उनका जैसा चाहेगा वैसा धारण-पोषण करेगा, उधर दबना मेरा काम नहीं है। क्योंकि ज्ञान प्राप्ति के बाद, परमेश्वर' 'मैं' और ' लोग'-यह भेद ही नहीं रहता; और यदि रहे, तो उसे ढोंगी कहना चाहिये, ज्ञानी नहीं। यदि ज्ञान से ज्ञानी पुरुष परमेश्वररूपी हो जाता है, तो परमेश्वर जो काम करता है, वह परमेश्वर के समान अर्थात् निाला बुद्धि से करने की आवश्यकता ज्ञानी पुरुष को कैसे छोड़ेगी (गी. ३. २२ और १. १४ एवं १५) ? इसके अतिरिक्त परमेश्वर को जो कुछ करना है, वह मी ज्ञानी पुरुष के रूप या द्वारा से ही करेगा। प्रतएव जिसे परमेश्वर के स्वरूप का ऐसा अपरोक्ष ज्ञान हो गया है, कि “ सय प्राणियों में एक आत्मा है," उसके मन में सर्वभूतानुकम्मा आदि उदात्त धृत्तियाँ पूर्णता से जागृत रह कर स्वभाव से ही उसके मन को प्रवृत्ति लोककल्याण की ओर हो जानी चाहिये । इसी अभिप्राय से तुकाराम महाराज साधुपुरुप के लक्षण इस प्रकार बतलाते है- " जो दीन दुखियों को अपनाता है वही साधु है-ईश्वर भी उसी के पास है।" अथवा "जिसने परोपकार में अपनी शकि का व्यय किया है उसी ने प्रात्मस्थिति को जाना है, और, अन्त में संतजनों के (अर्थात् मकि से परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान पानेवाले महात्माओं के) कार्य का वर्णन इस प्रकार किया है " संतों की विभूतियाँ जगत के कल्याण ही के लिये हुआ करती हैं, वे लोग परोपकार के लिये अपने शरीर को कर दिया करते हैं।" भर्तृहरि ने वर्णन किया है कि परार्थ ही जिसका स्वार्य हो गया है, वही पुरुष साधुषों में श्रेष्ठ है,-"स्वार्थों यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामप्रणी।। "क्या मनु प्रादि शास्त्रप्रणेवा ज्ञानी न थे ? परन्तु दन्हों ने तृष्णा-दुःख को बड़ा भारी हौवा मानकर तृप्णा के साथ ही साथ परोपकार-धुद्धि आदि सभी उदात्तवृत्रियों को नष्ट नहीं कर दिया- उन्होंने लोकसंग्रहकारक चातुर्वर्य प्रमृति शास्त्रीय मयांदा बना देने का उपयोगी काम किया है। ब्राह्मण को ज्ञान, क्षत्रिय को युद्ध, वैश्य को खेती, गोरक्षा और व्यापार अथवा शूद्र को संवा ये जो गुण, कर्म और स्वभाव के अनु. रूप भिन्न भिन्न कर्म शास्त्रों में वर्णित हैं, वे केवल प्रत्येक व्यक्ति के हित के ही लिये नहीं हैं। प्रत्युत मनुस्मृति (१.८७) में कहा है, कि चातुर्वण्र्य के व्यापारों का विभाग लोकसंग्रह के लिये ही इस प्रकार प्रवृत्त हुआ है। सारे समाज के बचाव के लिये कुछ पुरुषों को प्रतिदिन युद्धकला का अभ्यास करके सदा तैयार रहना चा इये और कुछ लोगों को खेती, व्यापार एवं ज्ञानार्जन प्रमृति उद्योगों से समाज की अन्यान्य आवश्यकताएँ पूर्ण करनी चाहिये । गीता (४.३, १८. ४) का इसी भाव को कविवर बाबू भैथिलीशरण गुप्त ने यो व्यक्त किया है:- वास उभी में है विमुवर का है वम सच्चा साधु वही- जिसने दुखियों को अपनाया, बढ़ कर उनकी वाह गही आत्मस्थिति जानी उसने ही परांहत जिसने व्यथा मही, परहितार्थ जिनका वैभव है, है उनसे हो धन्य मही॥
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