संन्यास और कर्मयोग। ३४३ प्रतिपाय है, यदि कहीं कर्ममार्ग को मोक्षप्रद कहा हो, तो वह सिर्फअर्थवाद या पोली स्तुति है। रुचिवचित्र्य के कारण किसी को भागवतधर्म की अपेक्षा मातधर्म ही बहुत प्यारा जंचेगा, अथवा कर्मसंन्यास के लिये जो कारण सामान्यतः यतलाये जाते हैं वे ही उसे अधिक बलवान् प्रतीत होंगे; नहीं कौन कहे । उदाहरणार्थ, इसमें किसी को शंका नहीं, कि श्रीशंकराचार्य को स्मात या संन्यास धर्म ही मान्य था, अन्य सब मार्गों को वे अज्ञानमूलफ मानते थे। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता, कि सिर्फ उसी कारण से गीता का भावार्थ भी यही होना चाहिये। यदि तुम्हें गीता का सिद्धान्त मान्य नहीं है, तो कोई चिन्ता नहीं, उसे न मानो। परन्तु यह उचित नहीं कि अपनी टेक रखने के लिये, गीता के प्रारम्भ में जो यह कहा है कि " इस संसार में श्रायु बिताने के दो प्रकार के स्वतंत्र मोक्षप्रद मार्ग अथवा निठाएँ हैं" इसका ऐसा अर्थ किया जाय, कि “ संन्यासनिष्ठा ही एक, सया और श्रेष्ठ मार्ग है।" गीता में वर्णित ये दोनों मार्ग, वैदिक धर्म में, जनक और याज्ञवल्क्ष्य के पहले से ही, स्वतंत्र रीति से चले आ रहे हैं। पता लगता है, कि जनक के समान समाज के धारण और पोषण करने के अधिकार क्षात्रधर्म के अनुसार, वंशपरम्परा से या अपने सामर्थ्य से जिनको प्राप्त हो जाते थे, वेज्ञानमाप्ति के पश्चात् भी निष्काम बुद्धि से अपने काम जारी रख कर जगत् का कल्याण करने में ही अपनी सारी श्रायु लगा देते थे। समाज के इस अधिकार पर ध्यान दे कर दी महाभारत में अधिकार-भेद से दुहरा वर्णन आया है, कि " सुखं जीवन्ति मुनयो भक्ष्यवृत्ति समाश्रिताः "(शां. १७८.११)-जंगलों में रहनेवाले मुनि भानन्द से भिवावृत्ति को स्वीकार करते है और “दराड एव हि राजेन्द्र क्षत्रधर्मो न मुरादनम् " (शां. २३. ४६) दण्ड से लोगों का धारण-पोपण करना ही क्षत्रिय का धर्म है, मुगटन करा लेना नहीं । परन्तु इससे यह भी न समझ लेना चाहिये, सिर्फ प्रजापालन के अधिकारी क्षत्रियों को ही, उनके अधिकार के कारण, कर्मयोग विहित था। कर्मयोग के उल्लिखित वचन का ठीक भावार्थ यह है कि जो जिस कर्म के करने का अधिकारी हो, वह ज्ञान के पश्चात् भी उस कर्म को करता रहे। और इसी कारण से महाभारत में कहा है, कि " एपा पूर्वतरा वृत्तिापरणस्य विधीयते " (शां. २३७) --ज्ञान के पश्चात् ब्राह्मण भी अपने अधिकारानुसार यज्ञ-याग आदि कर्म प्राचीन काल में जारी रखते थे। मनुस्मृति में भी संन्यास प्राधम के बदले सय वर्गों के लिये वैदिक कर्मयोग ही विकल्प से विहित माना गया है (मनु. ६.८६-९६)।यह कहीं नहीं लिखा है कि भागवतधर्म केवल शानियों के ही लिये है। प्रत्युत्त उसकी महत्ता यह कह कर गाई है, कि स्त्री और शूद्र आदि सब लोगों को वह सुलभ है (गी. ६.३२) । महाभारत में ऐसी कथाएँ हैं कि तुलाधार (वैश्य) और व्याध (बहेलिया) इसी धर्म का पाचरण करते थे, और उन्होंने ग्रामणों को भी उसका उपदेश किया था (शा. २६०, वन. २१५)। निष्काम कर्मयोग का माचरण करने- वाले प्रमुख पुरुषों के जो उदाहरण भागवत-धर्ममन्यों में दिये जाते हैं, वे केवल
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