पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । का ही उल्लेख किया है (वेसू. शांभा. १. २.७, १.३. १४ और ४.१.३ छो. शांमा.८.१.१)। इसी प्रकार कहा जाता है, कि पनदेव-पूजा का प्रकार मी पहले शकराचार्य ने ही किया था। इन सब बातों का विचार करने से यही सिद्ध होता है कि पहले पहल मार्त और मागवत पन्यों में शिवमक्ति' या 'विष्णुभक्ति' जैसे उपास्य मेदों के कोई झगड़े नहीं थे; किन्तु जिनको दृष्टि से स्मृति-प्रन्यों में सट रीति से पति आश्रम-व्यवस्था के अनुसार तरुण अवस्था में ययाशास्त्र संसार के सव कार्य करके, बुढ़ापे में एकाएक कर्म छोड़ चतुर्थाश्रम या संन्यास लेना अन्तिम साध्य था वे ही लात कहलाते थे और जो लोग भगवान् के उपदेशानुसार यह समझते थे कि ज्ञान एवं प्रज्वल भगवद्भक्ति के साथ ही साथ मरण पर्यन्त गृहस्थाश्रम के कार्य निष्काम बुद्धि से करते रहना चाहिये उन्हें भागवत कहते थे । इन दोनों शब्दों के मूल अर्थ यही है और, इसी से ये दोनों शब्द, सांख्य और योग अथवा संन्यास और कर्मयोग के क्रमशः समा- नार्थक होते हैं। भगवान् के अवतारकृत्य से कहो, या ज्ञानयुक्त गाईस्थ्य-धर्म के महत्व पर ध्यान दे कर कहो, संन्यांस-प्राश्रम लुप्त हो गया था; चोर कलिवयं प्रकरण में शामिल कर दिया गया था; अर्थात् कलियुग में जिन बातों को शास्त्र ने निपिद माना है उनमें संन्यास की गिनती की गई थी। फिर जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों ने कापिल सांख्य के मत को स्वीकार कर, इस मत का विशेष प्रचार किंग कि, संसार का त्याग कर संन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिलता । इतिहास में प्रसिद्ध है, कि युद्धने स्वयं चरण अवस्था में ही राज-पाट, धौर थाल बच्चों को छोड़ कर संन्यास दीक्षा ले ली थी। यद्यपि श्रीशक्षराचार्य ने जैन और बौद्धों का खण्डन किया है, तथापि जैन और बौद्धों ने जिस संन्यासधर्म का विशेष प्रचार किया था, उसे ही श्रौतस्मात संन्यास कह कर प्राचार्य ने कायम रखा और उन्हों ने गीता का इत्यर्थ भी ऐसा निकाला कि, वही संन्यासधर्म गीता का प्रतिपाद्य विषय है। परन्तु वास्तव में गीता सात-मार्ग का अन्य नहीं; यद्यपि सांख्य या संन्यास मार्ग से ही गीता का भारंभ हुआ है, तो भी आगे सिद्धान्तपक्ष में प्रवृत्तिप्रधान मागवतधर्म ही उसमें प्रतिपादित है। यह स्वयं महामारतकार का वचन है, जो हम पहले ही प्रकरण में दे पाये है। उन दोनों पक्षों के बैदिक ही होने के कारण, सब अंशों में न सही तो अनेक अंशों में, दोनों की एकवाक्यता करना शक्य है । परन्तु ऐसी एकवाक्यता करना एक बात है और यह कहना दूसरी यात है, कि गीता में संन्यास मार्ग ही निर्णयसिन्धु के तृतीय परिच्छेद में कलिवयं-प्रकरण देखो। इसमें " अग्निहोत्रं गवा- लम्भ संन्यासं पलपैतृकम् । देवराच्च नुवोत्पत्तिः काली पन विवर्जयेत् " और " संन्यासद न कर्तव्यो बामणेन विजानता" इत्यादि स्मृतिवचन है । अर्थ:-अमिहोत्र, गोवध, सन्यास, आर में मांसभक्षण और नियोग, कलियुग में ये पाँचों निषित है । इनमें से संन्यास का निषिद्धव मी शंकराचार्य ने पोछे से निकाल डाला।