३४८ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र। ? है। कर्मयोगी पुरुष स्व कमी के दो भेद करते हैं-एक को कहते हैं 'काम' अद शासक बुद्धि से किय गये कलं, और दूसरे को कहते हैं 'निकान 'अपांव आदि छोड़ कर किये गये कर्म । (मनुस्मृति २३.८ में इन्हीं कनो को क्रम में । और निवृत्त नाम दिये हैं। इनमें से 'काम्य' वर्ग में जितने कर्म र सद को कर्मयोगी एकाएक छोड़ देता है, भयाद वह उनका 'लन्यास करता है। बाई रह गये नियाम' या 'निवृत कम सो कर्मयोगी निकान कम करता तो है पर इन सब में पालाशा का त्याग 'सर्वदेव रहता है। सारांश, कर्मयोगमान में भी 'संन्यास ' और 'त्याग'च्दा नहीं है ? लात मागबाले भने का सरूपतः सन्चार करते है तो उसके स्थान में मार्ग के योगी का कलाशा का संन्यास करते हैं। संन्यास दोनों ओर कायम ही ई (ती. .-६ पर हमारी टीका देना) निबन- धर्म का यह मुख्य तत्व है, कि जो पुल्प अपने सभी कर्म परमवर को प्रपंच कर निकाम बुद्धि से करने लगे, वह गृहस्पारनी हो, तो नी ने 'निर संन्यासी' ही कहना चाहिये (गी. ५.३) और नागवतपुराण में नी पहले सब आग्रम-धर्म पतला कर अन्त में नारद ने युधितिर को इसी ताव का उपदेश किया है । वामद परिडत ने जो गीता पर ययादीपिका टीका लिखी है, उसके (2) कथनानुसार शिखा बाहुनी तोडिला होस, मूंददाय मंत्र संन्यासी-या हाय ने दण्ड से कर मित्रा नाँगी, अथवा सब कन छोड़ कर जंगल में जा रहे, तो इसी से संन्यास नहीं हो जाता । संन्यास और वैराग्य बादि के धर्म है। दण्ड, चोटी या बना के नहीं । यदि कहो, कि ये दण्ड आदि के ही धन है, बुद्धि के अयाद ज्ञान के नही, तो राजन्न अथवा इतरी की हाड़ी पकड़नेवाले को भी वह मोक्ष मिलना चाहिये, जो संन्यासी को मात्र होता है; जनक सुतमा-संवाद में ऐसा ही कहा है- विदण्डादियु यति मोसो झाने न कल्यचित् । छत्रादिषु कयं न त्यातुल्यहेतौ परिग्रहे ।। (शां.३२०.१२); क्योंकि हाय ने दण्ड धारण करने ने यह मोक्ष का देव दोन स्थानों में एक ही है। वालये, नायिक, वाचिक और मानशिक संयम ही सच्चा निद- राड है (मनु. १२. २०) और सचा संन्यास कान्य युदि का संन्यास है (नी...२); एवं वह जिस प्रकार मागवतधन में नहीं छूटता (गी. ६.२), उसी प्रकार बुद्धि को स्थिर रखने का कने या भोजन आदि कर्म भी सांल्यमार्ग में अन्त तक छूटता ही नहीं है। फिर ऐसी जुद्र शंकाएँ करके भगवे या सफेद करड़ों के लिये झगड़ने से क्या नाम होगा, कि निदादी या कमयागरूप संन्यास कर्मयोगमा में नहीं है इसलिये वह मार्ग स्वृतिविद या स्यात्य है। मगवान् ने तो निरभिमानपूर्वक बुद्धि से यही कहा ई- एक गत्यं च योनं च यः पश्यति स पश्यति ।
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