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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३८८

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संन्यास और फर्मयोग। ३४४ सर्थात्, जिसने यह जान लिया फि लाग्य सार कर्मयोग मोनाटि से दो नहीं, एक ही हैं, वही पसिंडत है (गी. ५.५)। सौर. महाभारत में भी कहा है, कि एकान्तिक अर्थात् भागवतधर्म साम्प्यधर्म की पराधरी का है- सांख्ययोगेन सुल्यो हि धर्म एकान्तसषितः " (शां. ३५८.७४) सारांश, सय स्थार्य का पराध में लय फर अपनी अपनी योग्यता के अनुसार व्यवहार में प्राप्त सभी फर्म सब भागियों के हितार्य मरण पर्यन्त निष्काम गुद्धि से फेवल कसंख्य समझ कर करते जाना ही सया पैराग्य या 'निरसंन्यास ६ (५.३); इसी कारण फर्मयोगमार्ग में स्वरूप से कम फा संन्यास कर भिक्षा कभी भी नहीं मांगते।परन्तु धाइरी माचरण से देखने में यदि इस प्रकार भेद दिखे, तो भी संन्यास और त्याग के " सधे ताप फर्मपांगमार्ग में भी कायम ही रहते हैं । इसलिये गीता का अन्तिम सिद्धान्त है, कि स्मृतिप्रन्यों की प्राधमध्यवस्था का और निष्काम कर्मयोग का विरोध नहीं। सम्भव ६ इस विवंचन से कुछ लोगों की कदाचित् ऐसी समझ हो जाय, कि संन्यासधर्म के साथ पर्मयोग का मेल करने का जो इतना बड़ा उद्योग गीता में किया गया है, उसका कारण यह है कि स्मात या संन्यास धर्म प्राचीन होगा और कर्मः योग उसके याद का होगा । परन्तु इतिहास की सटि से विचार करने पर कोई भी जान सफेगा कि सची स्थिति ऐसी नहीं यह पहले ही कर पाये हैं, कि पैदिक धर्म का सत्यन्त प्राचीन स्वरुप फर्मकारात्मक बीघा मागे पल कर उपनिषदों के शान से फर्मकायर को गांगता प्राप्त होने लगी और कर्मत्यागरूपी संन्यास धारे धीरे प्रचार में खाने लगा । यह वैदिक धर्म-जा की मृद्धि की दूसरी सीढ़ी है। पर ऐसे समय में भी, उपनिपनों के ज्ञान का फर्मकाराड से मेल मिला फर, जनक प्रमृति शासा पुरुप सपनं फर्म निकाम गदि से नीयन भर किया करत - अर्थात कहना चाहिये, कि पैदिक धर्म-वृक्ष की यह दूसरी सीढ़ी दो प्रकार की ची. एक जनक 'यादि की, और दूसरी यायलय प्रभृति फी स्मात प्राधम-व्यवस्था इससे अगली प्रति तीसरी सीड़ी है। दूसरी सीड़ी के समान तीसरी के भी दो भेद हैं। स्मृतिग्रन्यों में फर्मत्यागरूप चौधे पानम की महत्ता गाई लो सपश्य गई ६, पर उसके साथ ही जनक आदि के ज्ञानयुगा फर्मयोग का भी-उसको संन्यास आश्रम का पिकमा समझ कर-स्मृतिगोताओं ने वर्णन किया है। उदाहरणार्थ, सय स्मृतिग्रन्थों में मूलभूत मनुस्मृति को ही लीजिय; इस स्मति के छठे अध्याय में कहा है, कि मनुष्य प्राययं, गाईस्थ्य और वानप्रस्थ प्राश्नमी से चढ़ता पढ़ता फर्मत्यागरूप चौघा पाश्रम ले । परनु संन्यास प्राधम अर्थात् यतिधर्म का निरूपण समाप्त होने पर मनु ने पहले यह प्रस्तावना की, कि "यह यतियों का अर्याच संन्यासियों का धर्म पतलाया, अब पैद-संन्यासिकों का फर्मयोग कहते हैं" और फिर यह यतला कर कि अन्य साश्रमों की अपेक्षा गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ फेसे है, उन्हों ने संन्यास प्राधम या यतिधर्म को पैकल्पिक मान निष्काम गाईस्थ्यवृत्ति के कर्मयोग का वर्णन किया है (मनु. ६.८६-६६); और भागे धारहवें अध्याय