पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३९२

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संन्यास और कर्मयोग। (8) तृष्णामूलक कर्म दुःखमय और बंधक हैं। (e) यदि इलका खूब विचार करें कि दुःख और बन्धन किसमें हैं, तो देख पड़ेगा कि अचेतन कर्म किसी को भी वाँधत या छोड़ते नहीं हैं, उनके सम्बन्ध कर्ता के सन में जो कास या फलाशा होती है, वही बन्धन और दुःख की (५) इसलिये चित्तशुद्धि होने तक (५) इसलिये चित्तशुद्धि हो चुकने यदि कोई कर्म करे, तो भी अन्त में छोड़ पर भी फलाशा छोड़ कर, धैर्य और देना चाहिये। उत्साह के साथ सय कर्म करते रहो। यदि कहो कि कर्मी को छोड़ दें, तो वे छुट नहीं सकते । सृष्टि ही तो एक कर्म है, उसे चिन्नाम है ही नहीं । (६) यज्ञ के अर्थ किये गये कर्म बन्धक (६) निष्काम-शुद्धि से या ब्रह्मार्पणा- न होने के कारण, गृहस्थाश्रम में विधि से किया गया समस्त कर्म एक उनके करने से हानि नहीं है। भारी 'यज्ञ'ही है। इसलिये स्वधर्म- विहित समस्त कर्म को निष्काम बुद्धि से केवल कर्तव्य समझ कर सदैव करते रहना चाहिये। (७) देह के धर्म कभी छूट नहीं, (७) पेट के लिये भीख माँगना भी इस कारण संन्यास लेने पर पेट के लिये तो कर्म ही है, और जब ऐसा निल- भिक्षा माँगना बुरा नहीं। आता' का कर्म करना ही है तब अन्यान्य पर्स भी निष्काम अन्दि से क्यों न किये जावें ? गृहस्थानमी के अतिरिक्त भिक्षा दंगा ही कौन? (5) ज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर अपना (1) ज्ञान-प्राति के अनन्तर अपने निजी कर्तव्य कुछ शेप यहीं रहता और लिये भले कुछ प्राप्त करने को न रहे लोकलंग्रह करने की कुछ आवश्यकता परन्तु कर्म नहीं छूटते । इसलिये जो नहीं। कुछ शान से प्राप्त हो, उले सुझे नहीं चाहिये । ऐसी निर्मम सुद्धि से लोकसंग्रह की ओर एष्टि रख कर करते जाओ। लोकसंग्रह किसी से भी नहीं छुटता; उदाहरणार्थ भगवान् का चरित्र देखो।