पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३९१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। लगाने से प्रस्थानत्रयी के तीनों भागों में विरोध हो जायगा और उनकी प्रामाणिकता में भी न्यूनता पा जावेगी । यदि सांख्य नर्यात् एक संन्यास ही सच्चा वैदिक मोदमार्ग हो, तो यह शक्षा ठीक होगी। परन्तु उपर दिखलाया जा चुका है, कि कम से कम ईशावास्य श्रादि कुछ उपनिपदों में कर्मयोग का स्पष्ट उल्लेख है । इस- लिये वैदिक धर्म-पुरुष को केवल एकहत्यी अर्थात् संन्यासप्रधान न समझ कर यदि गीता के अनुसार ऐसा सिद्धान्त करें कि उस वैदिक धर्म-पुरुष के ब्रह्मविद्याप एक ही मस्तक है और मोक्षदृष्टि से तुल्य वलवाले सांस्य और कर्मयोग उसके दहिनेवाएँ दो हाय हैं, तो गीता और उपनिपदों में कोई विरोध नहीं रह जाता । उपनिषदों में एक मार्ग का समर्थन है, और गीता में दूसरे मार्ग का; इसलिये प्रस्थानत्रयी के ये दोनों भाग भी दो हाथों के समान परस्पर विरुद्ध न हो, सहायकारी देख पड़ेंगे। ऐसे ही, गीता में केवल स्पंनिपदों का ही प्रतिपादन मानने से, पिष्टपेपण का नो वैयर्थ्य गीता को प्राप्त हो जाता, वह भी नहीं होता । गीता के साम्प्रदायिक टीकाकारों ने इस विषय की उपेक्षा की है, इस कारण सांख्य और योग, दोनों मागों के पुरस्कर्ता अपने अपने पन्य के समर्थन में जिन मुख्य कारणों को बतलाया करते है, उनकी समता और विषमता चटपट ध्यान में आ जाने के लिये नीचे लिखे गये नशे के दो खानों में वे ही कारण परस्पर एक दूसरे के सामने संक्षेप से दिये गये हैं। स्मृतिमन्धों में प्रतिपादित स्मात आश्रम-व्यवस्था और मूल भागवत-धर्म के मुख्य मुख्य भेद भी इससे ज्ञात हो जावेंगे। ब्रह्मविद्या या आत्मज्ञान । प्राप्त होने पर। कर्मसंन्यास (सांख्य)। कर्मयोग (योग)। (१) मोक्ष आत्मज्ञान से ही मिलता (१) मोक्ष आत्मज्ञान से ही मिलता है, कर्म से नहीं। ज्ञान-विरहित किन्तु है, कर्म से नहाँ ज्ञान-विरहित किन्तु श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ-याग श्रादि श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ-यागादि का कों से मिलनेवाला स्वर्गसुख अनित्य है। से मिलनेवाला स्वर्गसुख अनित्य है। (२)आत्मज्ञान होने के लिये इन्द्रिय (२) आत्मज्ञान होने के लिये इन्द्रिय निग्रह से बुद्धि को स्थिर, निष्काम, निग्रह से बुद्धि को स्थिर,निष्काम,विरक्त विरक्त और सम करना पड़ता है। और सम करना पड़ता है। (२) इसलिये इन्द्रियों के विपयाँका (२) इसलिये इन्द्रियों के विषयों को पाश तोड़ कर मुक्त(स्वतन्न)होजाओ। न छोड़ कर उन्हीं में वैरान्य से अर्थात् निष्कास-बुद्धि सेव्यवहार कर इन्द्रियनिग्रह की जाँच करो । निष्काम के मानी निष्क्रिय नहीं।