संन्यास और कर्मयोग । ३५६ पद् छोटा अर्थात् सिर्फ अठारह लोकों का है, तथापि इसकी योग्यता अन्य उपनिषदों की अपेक्षा अधिक समझी जाती है। क्योंकि यह उपनिषद स्वयं वाजसनेयी संहिता में ही कहा गया है शोर अन्यान्य उपनिपद धारणयक मन्य में कहे गये हैं। यह यात सर्वमान्न है, कि संहिता की अपेक्षा प्राहागा, और मालगों की अपेक्षा आर- ण्यक ग्रन्थ, उत्तरोत्तर कम प्रमाण के है। यह समूचा ईशावास्योपनिपद्, अय से ले कर इति पर्यन्त, ज्ञान-कर्म-समुच्चयात्मक है। इसके पहले मन्त्र (लोक) में यह कह कर, कि “जगत् में जो कुछ है, बसे मंशावास्य अर्थात् परमेशराधिष्ठित समझना चाहिये, " दूसरे ही मन्त्र में स्पष्ट कह दिया है. कि " जीवन भर सौ वर्ष निष्काम कर्म करते रह कर ही जीते रहने की इच्छा रखो।" वेदान्तसूत्र में कर्मयोग के विवे. चन करने का जब समय आया तय, और अन्यान्य अन्यों में भी, ईशावास्य का यही वचन ज्ञान-कर्म-सगुच्चय पक्ष का समर्थक लगझ पर दिया सुना मिलता है। परन्तु ईशावास्योपनिप इतने से ही पूरा नहीं हो जाता। दूसरे मन में कही गई बात का समर्थन करने के लिये मागे 'अधिना' (कम)मार विधा' (ज्ञान) के विवेचन का प्रारम्भ कर, नवे मन्त्र में कहा है कि "निरी प्रविधा (फम) का सेवन करनेवाले पुरुष अन्धकार में घुसते है, और कोरी विद्या (मयज्ञाद)मेंस रहनेवाले पुरुष अधिक अंधेरे में जा पड़ते हैं। "फेवल प्रविया (कर्म) और देवल विद्या (मान) की-अलग अलग प्रत्येक की- इस प्रकार लघुता दिखला कर ग्यारह मन्त्र में नीचे लिखे अनुसार विधा' और ' प्रविधा दोनों के समुच्चय की पावश्यकता पल उपनिषद में वर्णन की गई है- विधां चाऽविद्यां च परतवेदोभयं सह । अविनया मृत्यु तात्वी विनायाऽमृरामस्नुते ।। अर्थात् " जिसने विधा (भाग) और. अगिधा (कर्म) दोनों को एक दूसरी के साथ जान लिया, यह प्रविधा की) से मृत्यु को पांच नाशवन्त माया-सृष्टि के प्रपत्र को ( भली भांति ) पार गर, विया (महाग से) अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है । " इस गन्न का यही स्पष्ट और सरता अर्थ है। और यही भार्थ, पिप्रा को · संभूति (जगर का अादि कारण) एवं उससे भिन अमित्रा को प्रतभूति' या विनाश दुलर नाम दे कर इसके प्रागे के तीन मंत्रों में फिर ले दुहराया गया है (ईश. १२-१४) । इससे व्यक होता है, कि सम्पूर्ण ईशावास्योपनिषद् विना और गाविद्या का कालीन (उभयं सह) समुच्चय प्रतिपादन करता है । जलिखित संग से ‘विधा ' और 'अविद्या ' शब्दो के समान ही मृत्यु और अमृत शब्द परस्पर प्रतियोगी हैं। इनमें शत शब्द से 'अविनाशी मस 'अयं प्रगर है, और इसको विपरीत मृतु शब्द से ' नाशवन्त मृत्युलोक या ऐहिक संहार' यह अर्थ विपन्न झोता है। ये दोनों शब्द इसी अर्थ में ऋग्वेद के नासदीय सूत में भी आये हैं (म. १०. १२६.२) । वित्रा आदि
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