पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३९९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशान । शब्दों के ये सरल अयं ले कर (अर्थात् विद्या-ज्ञान, अविद्या-कर्म, अमृत-ब्रह्म और मृत्यु-मृत्युलोक, ऐला समझ कर) यदि ईशावास्य के दल्लिखित ग्यारहवें मंत्र का अर्थ करें तो देख पड़ेगा कि इस मंत्र के पहले चरण में विद्या और अविद्या का एककालीन समुच्चय वर्णित है, और इसी बात को हड़ करने के लिये दूसरे चरण में इन दोनों में से प्रत्येक का जुदा जुदा फल बतलाया है । ईशावास्योपनिषद् को ये दोनों फल इष्ट हैं. और इसी लिये इल पनिपढ़ में ज्ञान और कर्म दोनों को एक- कालीन समुच्चय प्रतिपादित हुआ है । नृत्युलोक के प्रपंच को अच्छी रीति से चलाने या उससे भली भाँति पार पड़ने को ही गीता में लोकसंग्रह' नाम दिया गया है। यह सच है कि मोक्ष प्राप्त करना मनुष्य का कर्तव्य है। परन्तु उसके साथ ही साथ उसे लोकसंग्रह करना भी आवश्यक है। इसी से गीता का सिद्धान्त है, कि ज्ञानी पुरुप लोकसंग्रहकारफ कम न छोड़े और यही सिद्धान्त शब्द-भेद से "अविद्यया नृत्यु तीत्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते " इस उल्लिखित मंत्र में आ गया है। इससे प्रगट होगा, शिगीता उपनिषदों को पकड़े ही नहीं है, प्रत्युत ईशावास्या- पनिपद में स्पष्टतया वर्णित अर्थ ही गीता में विस्तार सहित प्रतिपादित हुया है। ईशावास्योपनिषद् जिस वाजसनेयी संहिता में है, उसी वाजसनेयी संहिता का भाग शतपय ब्राह्मण है । इस शतपय ब्राह्मण के भारण्यक में वृहदारण्यकोपनि- पद् आया है, जिसमें ईशावास्य का यह नवी मंत्र प्रक्षरशः ले लिया है कि "कोरी विद्या (बबज्ञान) में मग्न रहनेवाले पुरुप अधिक अंधेरे में जा पड़ते हैं। (पृ. ४. १. १०) । इस वृहदारण्यकोपनिपद् में ही जनक राजा की कया है, और उसी जनक का दृष्टान्त कर्मयोग के समर्थन के लिये भगवान् ने गीता में लिय इं (गी.३.२०)। इससे ईशावात्य का, और भगवद्गीता के कर्मयोग का जो संबंध हमने ऊपर दिखलाया है, वहीं अधिक पढ़ और निःसंशय सिद्ध होता है। परन्तु जिनका साम्प्रदायिक सिद्धान्त ऐसा है, कि सभी उपनिषदों में मौज- प्राप्ति का एक ही मार्ग प्रतिपाद्य है-और वह भी वैराग्य का या संन्यास का ही है, उपनिपदों में दो-दो मागों का प्रतिपादित होना शक्य नहीं, उन्हें ईशावास्योपनि- पद् के स्पष्टार्थक मन्त्रों की भी खींचा-तानी कर किसी प्रकार निराला अर्थ लगाना पड़ता है। ऐसा न करें. तो ये मंत्र उनके सम्प्रदाय के प्रतिकूल होते है, और ऐसा होने देना उन्हें इष्ट नहीं। इसी लिये ग्यारहवें मंत्र पर व्याख्यान करते समय शांकर भाष्य में विद्या' शब्द का अर्थ ज्ञान न कर उपासना' किया है। कुछ यह नहीं, कि विद्या शब्द का अर्थ उपासना न होता हो । शाण्डिल्यविद्या प्रकृति स्थानों में इसका अर्थ उपासना ही होता है पर वह मुख्य अर्थ नहीं है। यह भी नहीं, कि श्रीशंकराचार्य के ध्यान में वह आई न होगी या नाई न थी; और तो क्या, उसका ध्यान में न आना शक्य ही न था। दूसरे उपनिपदों में भी ऐसे वचन हैं-" विद्यया विन्दतेऽमृतम् । (केन. २. १२), अथवा प्राणस्याध्यात्म विज्ञायामृतमश्नुते " (प्रश्न.३.१२) मैयुपनिपद के सातवें प्रपाठक में “ विद्या चा-