पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४

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अनुवादक की भूमिका ।
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भूमिका लिख कर महात्मा तिलक के प्रन्थ का परिचय कराना, माना सूर्य को दीपक से दिखलाने का प्रयत्न करना है । यह अन्य स्वयं प्रकाशमान होने के कारण अपना परिचय आप ही दे देता है । परन्तु भूमिका लिखने की प्रणाली सी पड़ गई है। अन्य को पाते ही पत्र उलट-पलट कर पाठक भूमिका खोजने लगते हैं । इसलिये उस प्रणाली की रक्षा करने और पाठकों की मनस्तुष्टि करने के लिये इस शीर्षक के नीचे दो शब्द लिखना आवश्यक हो गया है।

सन्तोष की बात है कि श्रीसमर्थ रामदास स्वामी की अशेष कृपा से, तथा सद्गुरु श्रीरामदासानुदास महाराज (हनुमानगर, वर्धा, निवासी श्रीधर विष्णु परांजपे ) के प्रत्यक्ष अनुग्रह से जब से मेरे हदय में अध्यात्म विषय की जिज्ञासा उत्पन्न हुई है तभी से इस विषय के अध्ययन के महत्व पूर्ण अवसर अनायास मिलते जाते हैं। यह उसी रूपा और अनुप्रह का फल था कि मैं संगत् १९७० में श्रीसमर्थ के दासबोध फा हिन्दी अनुवाद कर सका । अप उसी रूपा और अनुग्रह के प्रभाव से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकात श्रीमद्भगवद्गीता-रहस्य के अनुवाद करने का अनुपम अवसर हाथ लग गया है।

अब मुझे यह काम सौंपा गया, तय ग्रन्थकार ने अपनी यह इच्छा प्रकट की, कि मूल ग्रन्थ में प्रतिपादित सब भाव ज्यों के त्यो हिन्दी में पूर्णतया व्यक्त किये जायें; क्योंकि प्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्तों पर जो आक्षेप होंगे, उनके उत्तरदाता मूल लेखक हो हैं । इसलिये मैंने अपने लिये दो कर्तव्य निधित किये:—(१) यथामति मूल भावों की पूरी पूरी रक्षा की जाये, और (२) अनुवाद की भापा यथाशाती शुद्ध, सरल, सरस और सुबोध हो । अपनी अल्पबुद्धि और सामर्थ्य के अनुसार इन दोनों कर्तव्यों के पालन करने में मैंने कोई बात उठा नहीं रखी है। और, मेरा आन्तरिक विश्वास है कि, मूल अन्य के भाव यस्किगित् भी अन्यया नहीं हो पाये हैं। परन्तु सम्भव है कि, विषय को कठिनता और भावों की गम्भीरता के कारण मेरी भाषा- शैली कहीं कहीं लिष्ट अथवा दुर्योध सी हो गई हो; और, यह भी सम्भव है कि हूँढ़नेवालों को इसमें ' मराठीपन की यू' भी मिल जाय । परन्तु इसके लिये किया क्या जाय ? लाचारी है । मूल प्रन्थ मराठी में है, मैं स्वयं महाराष्ट्र हूँ, मराठी ही