मेरी मातृभाषा है, महाराष्ट्र देश के केन्द्रस्थल पूने में ही यह अनुवाद छापा गया है और मैं हिन्दी का कोई 'धुरंधर' लेखक भी नहीं हूँ। ऐसी अवस्था में, यदि इस ग्रन्थ में उक्त दोष न मिलें, तो बहुत आश्चर्य होगा।
यद्यपि मराठी 'रहस्य' को हिन्दी पोशाक पहना कर सर्वांग सुन्दर रूप से हिन्दी पाठकों के उत्सुक हृदयों में प्रवेश कराने का यत्न किया गया है, और ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय को समझाने के लिये उन सब साधनों की सहायता ली गई है कि जो हिन्दी-साहित्य-संसार में प्रचलित हैं। फिर भी स्मरण रहे कि यह केवल अनुवाद ही है-इसमें वह तेज नहीं आ सकता कि जो मूल ग्रन्थ में है। गीता के संस्कृत श्लोकों के मराठी अनुवाद के विषय में स्वयं महात्मा तिलक ने उपोद्धात (पृष्ठ ५९८ ) में यह लिखा है:— "स्मरण रहे कि, अनुवाद आखिर अनुवाद ही है। हमने अपने अनुवाद में गीता के सरल, खुले और प्रधान अर्थ को ले आने का प्रयत्न किया है सही; परन्तु संस्कृत शब्दों में और विशेषतः भगवान् की प्रेमयुक्त, रसीली, व्यापक और क्षणक्षण में नई रचि उत्पन्न करनेवाली वाणी में लक्षणा से अनेक व्यंग्यार्थ उत्पन्न करने का जो सामर्थ्य है, उसे ज़रा भी न घटा बढ़ा कर, दूसरे शब्दों में ज्यों का त्यों झलका देना असम्भव है...।" ठीक यही वात महात्मा तिलक के ग्रन्थ के इस हिन्दी अनुवाद के विषय में कही जा सकती है।
एक तो विषय तात्त्विक, दूसरे गम्भीर, और फिर महात्मा तिलक की वह ओजस्विनी, व्यापक एवं विकट भाषा कि जिसके मर्म को ठीक ठीक समझ लेना कोई साधारण बात नहीं है। इन दुहरी-तिहरी कठिनाइयों के कारण यदि मेरी वाक्यरचना कहीं कठिन हो गई हो, दुरूह हो गई हो, या अशुद्ध भी हो गई हो, तो उसके लिये सहृदय पाठक मुझे क्षमा करें । ऐसे ग्रन्थ के अनुवाद में किन किन कठिनाइयों से सामना करना पड़ता है और अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर पराधीनता के किन किन नियमों से बंध जाना होता है, इसका अनुभव वे सहानुभूतिशील पाठक और लेखक ही कर सकते हैं कि जिन्होंने इस ओर कभी ध्यान दिया है।
राष्ट्रभाषा हिन्दी को इस बात का अभिमान है कि वह महात्मा तिलक के गोता-रहस्य सम्बन्धी विचारों को अनुवाद रूप में उस समय पाठकों को भेट कर सकी है, जब कि और किसी भी भाषा का अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ,—यद्यपि दो-एक अनुवाद तैयार थे। इससे, आशा है कि, हिन्दीप्रेमी अवश्य प्रसन्न होंगे।
अनुवाद का श्रीगणेश जुलाई सन् १९१५ में हुआ था और दिसम्बर में उसकी पूर्ति हुई । जनवरी १९१६ से छपाई का आरम्भ हुआ, जो जून सन् १९१६ में समाप्त हो गया। इस प्रकार एक वर्ष में यह ग्रन्थ तैयार हो पाया। यदि मित्र-मण्डली ने मेरी पूर्ण सहायता न की होती तो मैं, इतने समय में, इस काम को