पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३६४ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। मिलता है ? केवल ज्ञान से, केवल कर्म से, या दोनों के समुच्चय से? और उसे उत्तर देते हुए हारीतस्मृति का, पक्षी के पंखावाला दृष्टान्त ले कर, पहले यह वत. लाया है कि “ जिस प्रकार अाकाश में पती की गति दोनों पंखों से ही होती है, उसी प्रकार ज्ञान और फर्म इन्हीं दोनों से मोक्ष मिलता है, केवल एक से ही यह सिद्धि मिल नहीं जाती।" और भागे इसी अयं को विस्तार-सहित दिखलाने के लिये समूचा योगवासिष्ट अन्य कहा गया है (यो. १.१.६-६) । इसी प्रकार वसिष्ट ने राम को मुख्य कथा में स्थान-स्थान पर बार बार यही उपदेश किया है, कि "जीवन्मुक्त के समान बुद्धि को शुद्ध रख कर तुम समस्त व्यवहार करो" (यो. ५. १८. १७-२६), या " कमी का छोड़ना मरण-पर्यन्त वचित न होने के कारण (यो. ६. उ. २०४२), स्वधर्म के अनुसार प्राप्त हुए राज्य को पालने का काम करते रहो" (यो. ५.५.५४ और ६. व. २१३.५०) । इस अन्य का उपसंहार और श्रीरामचन्द्र के किये हुए काम भी इसी उपदेश के अनुसार हैं । परन्तु योगवासिष्ट के टीकाकार थे संन्यासमार्गीय, इसलिये पक्षी के दो पंखोवाली उपमा के स्पष्ट होने पर भी, उन्हों ने अन्त में अपने पास से यह नुर्रा लगा ही दिया कि ज्ञान और कर्म दोनों युगपत अर्थात् एक ही समय में विहित नहीं हैं। विना टीका का मूल अन्य पढ़ने से किसी के भी ध्यान में सहज ही भा जावेगा, कि टीकाकारों का यह अर्थ खींचातानी का है, एवं क्लिष्ट और साम्प्रदायिक है। मदाल प्रान्त में योगपासिष्ट सरीखा ही गुरु- ज्ञानवासिष्टतावसारायण नामक एक अन्य प्रसिद्ध है। इसके ज्ञानकाण्ड, टपासना- काण्ड और कर्मकाण्ड-ये तीन भाग हैं। हम पहले कह चुके हैं, कि यह ग्रन्थ जितना पुराना बतनाया जाता है, उतना वह दिसता नहीं है यह प्राचीन भले ही न हो; पर जब कि ज्ञान-कर्म-समुच्चय पन ही इसमें प्रतिपाय है, तब इस स्थान पर उसका उल्लेख करना आवश्यक है। इसमें अद्वैत वेदान्त है और निष्काम कर्म पर ही यहुत जोर दिया गया है इसलिये यह कहने में कोई हानि नहीं, कि इसका सम्प्रदाय शंकराचार्य के सम्प्रदाय से भिन्न और स्वतन्त्र है। मदास की ओर इस सम्प्रदाय का नाम 'अनुभवाद्वैत' है और वास्तविक देखने से ज्ञात होगा, कि गीता के कर्म- योग की यह एक नकल ही है। परन्तु केवल भगवद्गीता के ही प्राधार से इस सम्प्र. दाय को सिद्ध न कर, इस अन्य में कहा है कि कुल १०८ उपनिपदों से भी वही अर्थ सिद्ध होता है। इसमें रामगीता और सूर्यगीता, ये दोनों नई गीताएँ भी दी हुई है। कुछ लोगों की जो यह समझ है, कि अद्वैत मत को अंगीकार करना मानो कर्म- संन्यासपक्ष को स्वीकार करना ही है, वह इस ग्रन्थ से दूर हो जायगी । ऊपर दिये गये प्रमाणों से अव स्पष्ट हो जायगा कि संहिता, ब्राह्मण, उपनिपद्, धर्मसूत्र, मनु. याज्ञवल्क्यस्मृति, महाभारत, भगवद्गीता, योगवासिष्ट और अन्त में तापसारायण प्रमृति ग्रन्थों में भी जो निष्काम कर्मयोग प्रतिपादित है, उसको श्रुति-स्मृति- प्रतिपादित न मान केवल संन्यासमार्ग को ही श्रुति-स्मृति-प्रतिपादित कहना सर्वया निर्मूल है।