पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४०२

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संन्यास और कर्मयोग। भाष्य में जो " तपसा कल्म इन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते " यह मनु का वचन दिया है, इसका भी घोड़ा सा विचार करते हैं। मनुस्मृति के बारहवें अध्याय में यह:०४ नम्बर का श्लोक और मनु. १२.८६ से विदित होगा, कि यह प्रकरण वैदिक कर्मयोग का है। कर्मयोग के इस विवेचन में- तपो विधा च विप्रत्य नि:श्रेयसकरं परम् । तपसा कल्मपं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ पहले चरगा में यह यतला कर, कि " तप और (च) विधा (अर्थात दोनों) माण को उत्तम मोक्षदायक है," फिर प्रत्येक का उपयोग दिखलाने के लिये दूसरे चरण में कहा है, कि " तपसे दोप न हो जाते हैं और विद्या से अमृत अर्थात् मोक्ष मिलता।" इससे प्रगट होता है, कि इस स्थान पर.ज्ञान-कर्म-समुच्चय ही मनु को अभिप्रेत ई और ईशावास्य के न्यारहवं मंत्र का अर्थ ही मनु ने इस श्लोक में वर्णन कर दिया है। हारीतस्मृति के वचन से भी यही अर्थ अधिक बढ़ होता है। यह हारीतस्मृति स्वतन्त्र तो उपलब्ध है ही, इसके सिवा यह नृसिंहपुराण (स. ५०-६१) में भी आई है। इस नृसिंहपुराण (६१.६-११) में और हारीत- एमृति (७.६-११) में ज्ञान-कम-समुच्चय के सम्बन्ध में ये श्लोक हैं- यथाबा रथहीना रथाश्चाश्वविना यथा । एवं तपक्ष विद्या न उभायपि तपस्विनः ॥ यशानं मधु संयुतं मधु चानन संयुतम् । एवं तपश विद्या च संयुक्तं भेषजं महत् । द्वाभ्यामेव हि पक्षाभ्यां यथा चै पक्षिणां गतिः । थिय शानफर्माभ्यां प्राप्यते मला शाश्वतम् ॥ अर्थात् " जिस प्रकार रय विना घोडे और घोड़े के बिना रप (नहीं चलते) उसी प्रकार तपस्वी के तप और विधा की भी स्थिति है। जिस प्रकार जरा शहद से संयुक्त हो और शहद अस से संयुक्त हो, उसी प्रकार तप और विधा के संयुक्त होने से एक महापधि होती है। जैसे पक्षियों की गति दोनों पंसी के योग से ही होती है, वैसे ही ज्ञान और कर्म (दोनों) से शाश्वत महा प्राप्त होता है।" हारीतस्मृति के ये वचन पृक्षालयस्मृति के दूसरे अध्याय में भी पाये जाते हैं। इन वचनों से, और विशेप कर उनमें दिये गये एटान्तों से, प्रगट हो जाता है कि मनुस्मृति के वचन का क्या अर्थ लगाना चाहिये । यह तो पहले ही कह चुके हैं, कि मनु तप शब्द में ही चातुर्वण्र्य के कर्मों का समावेश करते हैं (मनु. ११. २३६); और अब देख पड़ेगा, कि तैत्तिरीयोपनिषद् में तप और स्वाध्याय-प्रवचन" इत्यादि का जो पाच- रण करने के लिये कहा गया है (ते. १.६) यह भी ज्ञान-कर्म-समुच्चा पक्ष को स्वीकार कर ही कहा गया है। सच योगवासिष्ट ग्रन्थ का तात्पर्य भी यही है, क्योंकि इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में सुतीदा ने पूजा है, कि मुझे वतलाइये, कि मोद कैसे