पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४१६

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सिद्धावस्था और व्यवहार ३७७ भी यह पहले अवश्य निश्चित कर लेना पड़ता है कि ध्रुव जैसा अटल और नित्य नीति-ताव कौन सा है और इस आवश्यकता को एक बार मान लेने से ही समूचा भाधिभौतिक पन लैंगड़ा हो जाता है। क्योंकि सुख-दुःख आदि सभी विषयोप- भोग नाम-रूपात्मक हैं, अतएव ये नित्य और विनाशवान् माया की ही सीमा में रह जाते हैं। इसलिये केवल इन्हों यास प्रमाणों के आधार ले सिद्ध होनेवाला कोई भी नीति-नियम नित्य नहीं हो सकता । प्राधिभौतिक वारा सुख-दुःख की कल्पना जैसी जैसी बदलती जावेगी, वैसे ही पैसे उसकी बुनियाद पर रचे हुए नीति-धर्मों को भी बदलते रहना चाहिये । प्रतः नित्य पदलती रहनेवाली नीति-धर्म की इस स्थिति को चालने के लिये माया-सृष्टि के पिपयोपभोग छोड़ कर, नीति-धर्स की इमारत इस " सब भूतों में एक आत्मा "वाले अध्यात्मज्ञान के मजबूत पाये पर ही खड़ी करनी पड़ती है। क्योंकि पीचे नवे प्रकरगा में कह आये हैं कि मात्मा को छोड़ जगत में दूसरी कोई भी वस्तु निस नहीं है। यही तात्पर्य व्यासजी के इस वचन का है कि, “धर्ना नित्यः सुखदुःखे त्यनित्ये"-नीति अथवा सदाचरण का धर्म नित्य है और सुखदुःख अनित्य है। यह सच है कि, दुष्ट और लोमियों के समाज में अहिंसा एवं सत्य प्रति नित्य नीति-धर्म पूर्णता से पाले नहीं जा सकते; पर इसका दोप इन नित्य नीति-धों को देना उचित नहीं है । सूर्य की किरणों से किसी पदार्थ की परछाई चौरस मैदान पर सपाट और ऊँचे नीचे स्थान पर ऊँची-नीची पड़ती देख जैसे यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि वह परछाई मूल में ही ऊँची- नीची होगी, उसी प्रकार जय किदुष्टों के समाज में नीति-धर्म का, पराकाष्टा का शुद्ध स्वरूप नहीं पाया जाता, तब यह नहीं कह सवत्त कि अपूर्ण अवस्था के समाज में पाया जानेवाला नीति-धर्म का पूर्ण स्वरूप ही मुख्य अथवा मूल का है। यह दोप समाज का है, नीति का नहीं। इसी से चतुर पुरुप शुन्छ यौर नित्य नीति-धर्मों से झगड़ा न मचा कर ऐसे प्रयत्न किया करते हैं कि जिनसे समाज ऊँचा उठता हुना पूर्ण अवस्था में जा पहुंचे। लोभी मनुष्यों के समाज में इस प्रकार वर्तते समय ही नित्य नीति-धर्मों के कुछ अपवाद यद्यपि अपरिहार्य मान कर हमारे शामों में बत- लाये गये हैं, तथापि इसके लिये शास्त्रों में प्रायश्चित्त भी बतलाये गये हैं। परन्तु पश्चिमी प्राधिभौतिक नीतिशास्त्रज्ञ इन्ही अपवादों को मूछों पर ताय दे कर प्रति- पादन करते हैं, एवं इन अपवादों का निश्चय करते समय ये उपयोग में पानेवाले याय फलों के तारतम्य के तत्व को ही मन से नीति का मूल तत्व मानते हैं। अब पाठक लमझ जायेंगे कि पिछले प्रकरणों में हमने ऐसा भेद क्यों दिखलाया है। यह यतला दिया कि स्थितप्रज्ञ ज्ञानी पुरुप की पुद्धि और उसका बर्ताव ही नीति- शास्त्र का आधार है. एवं यह भी पतना दिया कि उससे निकलनेवाले नीति के नियमों को-उनके नित्य होने पर भी समाज की अपूर्ण अवस्था में थोड़ा बहुत यदलना पड़ता है तथा इस रीति से बदले जाने पर भी नीति-नियमों की नित्यता में उस परिवर्तन से कोई बाधा नहीं आती। भय इस पहले प्रश्न का विचार करते हैं कि स्थितप्रज्ञ गी.२.४८