गीतारहस्य अथवा फर्मयोगशान । रामदास स्वामी ने दासबोध के पूर्वाध में पहले ब्रह्मज्ञान बतलाया है और किन (दाल. 5. 10 २.c-10१५.२) इलका यन आरम्म किया है कि दिन प्रज्ञ या उत्तम गुरुप लबजाधारण लोगों को चतुर बनाने के लिये वैराग्य से अयान निस्टहता से साफग्रह के निमित्त व्याप या उद्योग लिस प्रकार मिया करते हैं। और भागे अठारहवें दशक (बास.८.२) में कहा है कि सभी को ज्ञानी पुरुष शांत जानकार के गुगा कथा, यातचीत, युक्ति, दाव पंच, प्रसन, प्रयत्न, तक, चतुराई, राजनीति, सहनशीलता, नीरणता, उदारता, अध्यात्नज्ञान, नान्ट, अलिलता, वैरान्य, धैर्य, उत्साह, दता, निग्रह, समता और विवेक आदि सीखना चाहिये । परन्तु इस नि:यह साधु को लोभी मनुष्यों में ही दर्तना है, इस कारण अन्त में (दास. १६.६. ३०) श्रीसमय का यह उपदेश है, कि "लटना सामना लदा ही से करा देना चाहिये, बम के लिये उमट्ट चाहिये और मारट फलामने नटपट फीधी भावश्यकता है। तात्पर्य, यह निर्विवाद है कि पूर्णावस्या से व्यवहार में उतरने पर प्रादुर श्रेणी के धर्म-अधर्म में घोड़ा यहुन अन्तर कर देना पड़ता है। इस पर प्राधिभौतिक-वादियों की शक्षा है कि गांवस्या के समाज से नीचे उतरने पर प्रक वाती सार-प्रसार का विचार करक परमावधि के नीति-धर्म में यदि थोड़ा बहुत फर्क करना ही पड़ता है, तो नीति-धर्म की नित्यता नहीं रह गई और भारत-सादिनी में प्याल जो यह “धा नित्यः " तब बतलाया है, उसकी क्या दशा होगी? वे कहते हैं कि अध्यात्मदृष्टि से सिद्ध होनेवाला धर्म का नित्यत्व करना-प्रसूत है, और प्रत्येक समान की स्थिति के अनुसार बस उस समय में " अधिकांश लोगों के प्राधिक सुख "बाले ताव से जो नीतिधर्म प्राप्त होंगे, वही चौख नीति-नियन हैं। परन्तु यह दलील ठीक नहीं है । भूमितिशास्त्र के नियमा- नुसार यदि कोई विना चौड़ाई की सरल रेखा अथवा सर्वाश में निदाप गोलाकार न खींच सके, तो जिस प्रकार इतने ही ले सरल रेखा की अथवा शुद्ध गोलाकार की शास्त्रीय व्याख्या गलत या निरर्थक नहीं हो जाती, बली प्रकार सरल और शुद्ध नियमों की बात है। जब तक किसी बात के परमाववि के शुद्ध स्वरूप का निश्चय पहले न कर लिया जाये तब तक व्यवहार में देख पहनेवाली इस बात को अनेक सूतों में सुधार करना अथवा सार-प्रसार का विचार करके अन्त में उसके तारतम्य को पहचान लेना भी सन्मय नहीं है और यही कारण है जो शराफ़ पहले ही निर्णय करता है कि १०० का सोना कौन है। दिशा-प्रदर्शक ध्रुवमत्स्य यन्त्र अथवा ध्रुव नक्षत्र की ओर दुलंदच कर अपार महोदधि की लहरों और वायु के ही तारतम्ब को देख कर जहाज के खलासी वारवार अपने जहाज़ की पतधार घुमाने लगे तो उनकी जो स्थिति होगी, वही स्थिति नीति-नियों के पर मावधि के स्वरूप पर ध्यान न दे कर फेवल देश-काल के अनुसार वतनेवाले मनुष्यों की होनी चाहिये । श्रतएव यदि निरी आधिमौतिक दृष्टि से ही विचार करें तो
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