३८० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । में बुद्धि की शुद्धता-अशुद्धता के विचार पर ही अवलम्बित रहता है । बुद्धि बुरी होगी, तो कर्म भी चुरा होगा; परन्तु फेवल बाहा कर्म के बुरे होने से ही यह अनु- मान नहीं किया जा सकता कि बुद्धि भी बुरी होनी ही चाहिये। क्योंकि भूल से, कुछ का कुछ समझ लेने से, अथवा अज्ञान से भी वैसा कर्म हो सकता है, और फिर उसे नीतिशास्त्र की दृष्टि से बुरा नहीं कह सकते। अधिकांश लोगों के अधिक सुख 'बाला नीतितत्व केवल बाहरी परिणामों के लिये ही उपयोगी होता है और जब कि इन सुख-दुःखात्मक बाहरी परिणामों को निश्चित रीति से मापने का बाहरी साधन अब तक नहीं मिला है, तब नीतिमत्ता की इस कसौटी से सदैव यथार्थ निर्णय होने का भरोसा भी नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार मनुष्य कितना ही सयाना क्यों न हो जाय, यदि उसकी बुद्धि शुद्ध न हो गई हो तो यह नहीं कह सकते कि यह प्रत्येक अवसर पर धर्म से ही वर्तगा। विशेषतः जहाँ उसका स्वार्थ श्रा बटा, यहाँ तो फिर कहना ही क्या है, स्वाथै सर्वे विमुह्यन्ति येऽपि धर्मविदो जनाः (सभा. वि. ५१.४)। सारांश, मनुष्य कितना ही बड़ा ज्ञानी, धर्मवेत्ता और सयाना क्यों न हो किन्तु, यदि उसकी बुद्धि प्राणिमात्र में सम न हो गई हो तो यह नहीं कह सकते कि उसका कर्म सदैव शुन्छ अथवा नीति की दृष्टि से निर्दोष ही रहेगा। अतएव हमारे शास्त्रकारों ने निश्चित कर दिया है कि नीति का विचार करने में काम के वाहा फल की अपेक्षा, कत्ती की बुद्धि का ही प्रधानता से विचार करना चाहियेसाम्यवृद्धि ही अच्छे वतांच का चोखा वीज है । यही भावार्य भग वनीता के इस उपदेश में भी है:- रेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगादनञ्चय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ कुछ लोग इस (गी. २. ४८) श्लोक में बुद्धि का अर्थ ज्ञान समझ कर कहते हैं कि कर्म और ज्ञान दोनों में ले, यहाँ ज्ञान को ही श्रेष्ठता दी है। पर हमारे मत में यह अर्थ भूल ले खाली नहीं है। इस स्थल पर शांकरभाज्य में बुद्धियोग का अर्थ समत्व वुद्धियोग दिया हुआ है, और यह श्लोक कर्मयोग के प्रकरण में श्राया है। अतएव वास्तव में इसका अर्थ कर्मप्रधान ही करना चाहिया और वही सरल रीति से लगता भी है । कम करनेवाले लोग दो प्रकार के होते हैं। एक फल पर-उदाहरणार्थ, उससे कितने लोगों को कितना सुख होगा, इस पर-दृष्टि जमा कर कर्म करते हैं और दूसरे बुद्धि को सम और निष्काम रख कर कर्म करते हैं, फिर कर्म-धर्म-संयोग से उससे जो परिणाम होना हो सो हुआ करे । इनमें से 'फलहतकः अर्थात् “फल पर दृष्टि रख कर क्रम करनेवाले लोगों को नैतिक इस श्लोक मा सरल अर्थ यह है -“हे धनञ्जय ! (सम-) धुद्धि के योग की अपेक्षा (कोरा) कर्म विलकुल ही निकृष्ट है । (अतएव म-वाद का ही आश्रय कर । फल पर दृष्टि रख कर कर्म करनेवाले ( पुरुष । कृपण अर्थात ओछे दर्जे के है।" क
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