विषयप्रवेश। ६ पू. सर्ग. ५२-५८)। ऊपर कहा जा चुका है कि पूने में छपे हुए पद्मपुराण में शिवगीता नहीं मिलती; परन्तु उसके न मिलने पर भी इस प्रति के उत्तरखंड के १७१ से १८८ अध्याय तक भगवद्गीता के माहात्म्य का वर्णन है और भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के लिये माहात्म्य-वर्णन में एक एक अध्याय है और उसके संबंध में कथा भी कही गई है। इसके सिवा वराहपुराण में एक गीता-माहात्म्य है और शिवपुराण में तथा वायुपुराण में भी गीता-साहात्म्य का होना बतलाया जाता है। परन्तु कलकत्ते के छपे हुए वायुपुराण में वह हमें नहीं मिला । भगवद्गीता की छपी हुई पुस्तकों के प्रारंभ में 'गीता-ध्यान' नामक नौ श्लोकों का एक प्रकरण पाया जाता है। नहीं जान पड़ता कि यह कहाँ से लिया गया है। परन्तु इसका "भीष्म- द्रोणतटा जयद्रथजला" श्लोक, थोड़े हेरफेर के साथ, हाल ही में प्रकाशित 'उरु- भंग' नामक भास कविकृत नाटक के प्रारंभ में दिया हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि उक्त ध्यान, मास कवि के समय के अनंतर प्रचार में आया होगा। क्योंकि यह मानने की अपेक्षा कि भास सरीखे प्रसिद्ध कवि ने इस श्लोक को गीता-ध्यान से लिया है, यही कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि गीता-ध्यान की रचना, भिन्न भिन्न स्थानों से लिये हुए थौर कुछ नये बनाये हुए श्लोकों से, की गई है। मांस कवि कालिदास से पहले हो गया है इसलिये उसका समय कम से कम संवत् ४३५ (शक तीन सौ)से अधिक अर्वाचीन नहीं हो सकता ।* ऊपर कही गई बातों से यह बात अच्छी तरह ध्यान में आ सकती है कि भगवद्गीता के कौन कौन से और कितने अनुयाद तथा कुछ इरफेर के साथ कितनी नकलें, तात्पर्य और माहात्म्य पुराणों में मिलते हैं। इस बात का पता नहीं चलता कि अवधूत और अष्टावक्र धादि दो चार गीतामों को कब और किसने स्वतंत्र रीति से रचा अथवा वे किस पुराण से ली गई हैं। तथापि इन सब गीताओं की रचना तथा विषय-विवंचन को देखने से यही मालूम होता है कि ये सब ग्रंथ, भगवद्गीता के जगत्प्रसिद्ध होने के बाद ही, बनाये गये हैं। इन गीताओं के संबंध में यह कहने से भी कोई हानि नहीं कि वे इसी लिये रची गई हैं कि किसी विशिष्ट पंच या विशिष्ट पुराण में भगवद्गीता के समान एक-आध गीता के रहे बिना उस पंथ या पुराण की पूर्णता नहीं हो सकती थी। जिस तरह श्रीभगवान् ने भगवद्गीता में अर्जुन को विश्वरूप दिखा कर ज्ञान बतलाया है उसी तरह शिवगीता, देवीगीता धौर गणेशगीता में भी वर्णन है। शिवगीता, ईश्वरगीता आदि में तो भगवद्गीता के अनेक श्लोक अक्षरशः पाये जाते हैं। यदि ज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो इन सब गीतात्रों में भगवद्गीता की अपेक्षा कुछ विशेपता नहीं है। और, भगव- गीता में अध्यात्मज्ञान और कर्म का मेल कर देने की जो अपूर्व शैली है वह किसी भी अन्य गीता में नहीं है । भगवद्गीता में पातंजलयोग अथवा
- उपर्युक्त अनेक गीताओं तथा भगवद्गीता को श्रीयुत हरि रघुनाथ भागवत भाजकल
पूने से प्रकाशित कर रहे हैं।