६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। इठयोग और कर्मत्यागरूप संन्यास का यथोचित वर्णन न देख कर, उसकी पूर्ति के लिये, कृष्णार्जुन संवाद के रूप में, किसी ने उत्तरगीता पीछे से लिख डाली है। अवधूत और अष्टावक्र आदि गीताएँ विज्ञकुल एकदेशीय हैं क्योंकि इनमें केवल संन्यास- मार्ग का ही प्रतिपादन किया गया है । यमगीता और पांडवगीता तो केवल भक्ति- विषयक संक्षिप्त स्तोत्रों के समान हैं। शिवगीता, गणेशगीता और सूर्यगीता ऐसी नहीं है। यद्यपि इनमें ज्ञान और कर्म के समुच्चय का युक्तियुक्त समर्थन छावश्य किया गया है तथापि इनमें नवीनता कुछ भी नहीं है, क्योंकि यह विषय प्रायः भगव. द्गीता से ही लिया गया है। इन कारणों से भगवद्गीता के गंभीर तथा व्यापक तेज के सामने बाद की बनी हुई कोई भी पौराणिक गीता ठहर नहीं सकी और इन नकली गीताओं से उलटा भगवद्गीता का ही महत्व अधिक बढ़ गया है। यही कारण ई कि 'भगवद्गीता' का 'गीता' नाम प्रचलित हो गया है । अध्यात्मरामायण और योगवासिष्ठ यद्यपि विस्तृत ग्रंथ हैं तो भी वै पीछे बने हैं और यह बात उनकी रचना से ही स्पष्ट मालूम हो जाती है । मद्रास का 'गुरुज्ञानवासिष्ट- तत्त्वसारायण ' नामक ग्रंथ कई एकों के मतानुसार बहुत प्राचीन है, परन्तु इम ऐसा नहीं समझते; क्योंकि उसमें १०८ उपनिषदों का उल्लेख है जिनकी प्राचीनता सिद्ध नहीं हो सकती । सूर्यगीता में विशिष्टाद्वैत मत का उल्लेख पाया जाता है (३.३०) और कई स्थानों में भगवद्गीता ही का युक्तिवाद लिया हुआ सा जान पड़ता है (१.६८) । इसलिये यह अंध भी यहुत पीछे से-धीशंकराचार्य के सो बाद-बनाया गया होगा। अनेक गीताओं के होने पर भी भगवद्गीता की श्रेष्टता निर्विवाद सिद्ध है। इसी कारण उत्तरकालीन वैदिकधर्मीय पंडितों ने, अन्य गीताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया और चे भगवद्गीता ही की परीक्षा करने और उसीके तत्व अपने बंधुओं को समझा देने में, अपनी कृतकृत्यता मानने लगे। ग्रंथ की दो प्रकार से परीक्षा की जाती है। एक अंतरंग-परीक्षा और दुसरी बहिरंग परीक्षा कहलाती है। पूरेग्रंप को देख कर उसके मर्म, रहस्य मथितार्थ गौरप्रमेय हूंढ़ निकालना 'अंतरंग-परीक्षा' है।ग्रन्थ को किसने और कववनाया,उसको भाषासरस हैया नीरस,कान्य-दष्टि से उसमें माधुर्य और प्रसाद गुण है या नहीं, शब्दों की रचना में व्याकरण पर ध्यान दिया गया है या उस ग्रंथ में अनेक आर्प प्रयोग हैं, उसमें किन किन मतों, स्थलों और व्यक्तियों का उल्लेख है-इन वातों से ग्रंथ के काल-निर्णय और तत्कालीन समाज- स्थिति का कुछ पता चलता है या नहीं, अंध के विचार स्वतंत्र हैं अथवा चुराये हुए हैं, यदि उसमें दूसरों के विचार भरे हैं तो वे कौन से हैं और कहाँ से लिये गये है इत्यादि वातों के विवेचन को 'वहिरंग-परीक्षा' कहते हैं। जिन प्राचीन पंदिता ने गीता पर टीका और भाप्य लिखा है उन्होंने उक्त बाहरी यातों पर अधिक ध्यान नहीं दिया। इसका कारण यही है कि वे लोग भगवदीता सरीखे अलौकिक अंथ की परीक्षा करते समय तक बाहरी वातों पर ध्यान देने को ऐसा ही समझते थे
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