पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४२५

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३८६ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र। दृष्टि अर्थात् समता से जो सव के साथ बर्तता है" वही उत्तम कर्मयोगी स्थितपक्ष है और फिर अर्जुन को इसी प्रकार के बर्ताव करने का उपदेश दिया है (गी. ६. ३०-३२)। अर्जुन अधिकारी या, इस कारण इस तत्व को खोल कर समझाने की गीता में कोई जरूरत न थी । किन्तु जन साधारण को नीति का और धर्म का बोध कराने के लिये रचे हुए महाभारत में अनेक स्थानों पर यह तब वतला कर (ममा. शां.२३८.२० २६१.३३), व्यासदेवं ने इसका गम्भीर और व्यापक अयं स्पष्ट कर दिखलाया है। उदाहरण लीजिये. गीता और उपनिषदों में संक्षेप से बतलाये हुए प्रात्मौपम्य के इसी तत्व को पहले इस प्रकार समझाया है. आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति पूरुषः । न्यस्तदण्डो जितक्रोधः स प्रेत्य सुखमेधते ॥ जो अपने ही समान दूसरे को मानता है और जिसने क्रोध को जीत लिया है, वह परलोकं में सुख पाता है" (मभा. अनु. १३.६)। परस्पर एक दूसरे के साथ बर्ताव करने के वर्णन को यही समाप्त न करके आगे कहा है। न तत्परस्य संदयात् प्रतिकूलं यदात्मनः । एप संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ।। "ऐसा बर्ताव औरों के साथ न करे कि तो स्वयं अपने को प्रतिष्ठूल अर्थात् दुःख- तारक मँचे । यही सव धर्म और नीतियों का लार है, और वाकी सभीन्यवहारलोभ. भूलक है" (मभा. अनु. ११३.८)। और अन्त में वृहस्पति ने युधिष्ठिर से कहा- प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये । आत्म.पम्येन पुटपः प्रमाणमधिगच्छति ॥ यथापरः प्रमते परेषु तथा परे प्रक्रमन्तेऽपरस्मिन् । तथैव तैपूपमा जीवलोके यथा धर्मों निपुणेनोपदिष्टः ।। सुख या दुःख, प्रिय या अप्रिय, दान अथवा निषेध इन सब बातों का अनु- मान दूसरों के विषय में वैसा ही करें, जैसा कि अपने विषय में जान पड़े । दूसरों के साथ मनुष्य जैसा बर्ताव करता है, दूसरे भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं; अतएव यही उपमा ले कर इस जगत में प्रात्मौपन्य की दृष्टि से दर्ताव करने को सयाने लोगों ने धर्म कहा है" (अनु. ११३.६, ३०)।यह न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिमूलं यदात्मनः । लोक विदुरनीति (ब्यो. ३८.७२) में भी है और आगे शान्तिपर्व (१६७. ६.) में विदुर ने फिर यही तत्त्व युधिष्टिर को बतलाया है। परन्तु आत्मोपन्य नियम का यह एक भाग हुआ कि दूसरों को दुःख न दो, क्योंकि जो तुम्हें दुःखदायी है वही और लोगों को भी दुःखदायी होता है । अव इस पर कदा- चित् किसी को यह दीर्घशा हो कि, इससे यह निश्चयात्मक अनुमान कहाँ निकलता है कि तुम्हें जो सुखदायक ऊँचे, वही औरों को भी सुखदायक है