सिद्धावस्था और व्यवहार। ३८९ करते हो, उनके साथ तुम्हें स्वयं भी वैसा ही यताव करना चाहिये" (मा. ७. १२ प्यू. ६.३१), और यूनानी तत्ववेत्ता अरिस्टॉटल के अन्य में मनुष्यों के परसर यधि करने का यही तत्व अक्षरशः बतलाया गया है। अरिस्टॉटल ईसा से कोई दो-तीन सौ वर्ष पहले हो गया है परन्तु इससे भी लगभग दो सौ वर्ष पहले चीनी तत्ववेत्ता खू-फू-से (अंग्रेज़ी अपभ्रंश कानफ्यूशियस) उत्पदा हुमा था, इसने प्रात्मौपम्य का उल्लिखित नियम चीनी भाषा की प्रणाली के अनु- सार एक ही शब्द में बतला दिया है ! परन्तु यह तत्व हमारे यहाँ कानफ्यूशियस से भी बहुत पहले से, उपनिपड़ों (ईश. ६. केन, १३) में और फिर महाभारत में, गीता में, एवं " पराये को भी प्रात्मवत् मानना चाहिये" (दास. १२. १०.२२) इस रीति से साधु-सन्तों के ग्रन्थों में विद्यमान है तथा इस लोकोक्ति का भी प्रचार है कि आप वीती सो जग बीती" यही नहीं, बल्कि इसकी प्राध्या- त्मिक उपपत्ति भी हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने दे दी है । जय हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि यद्यपि नीतिधर्म का यह सर्वमान्य सूत्र वैदिक धर्म से मिन इतर धर्मों में दिया गया हो, तो भी इसकी उपपत्ति नहीं यतलाई गई है और जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि इस सूत्र की उपपत्ति प्रमात्मैक्यरूप अध्यात्म ज्ञान को छोड़ और दूसरे किसी से भी ठीक ठीक नहीं लगती; तय गीता के आध्यात्मिक नीतिशास्त्र का अथवा कर्मयोग का महत्व पूरा पूरा व्यक्त हो जाता है। समाज में मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहार के विषय में प्रात्मीपम्य ' युन्द्रि का नियम इतना सुलभ, व्यापक, सुपौध और विश्वतोमुख है कि जय एक बार यह यतला दिया कि प्राणिगन में रहनेवाले आत्मा की एकता को पहचान कर " आत्मवत् समयुद्धि से दूसरों के साथ वर्तते जायो," तय फिर ऐसे पृथक् पृथक् उपदेश करने की जरूरत ही नहीं रह जाती कि लोगों पर दया करो, उनकी यथाशक्ति मदद करो, उनका कल्याण करो, उन्हें अभ्युदय के मार्ग में लगाओ, उन पर प्रीति रखो, उनसे ममतान छोड़ो, उनके साथ न्याय और समता का याच करो, किसी को धोखा मत दो, किसी का द्रव्यहरण अथवा हिता न करो, किसी से झूठ न बोलो, अधिकांश लोगों के अधिक कल्याण करने की बुद्धि मन में रखो, अपचा यह समझ कर भाई- चार से पतीव करी कि हम सब एक ही पिता की सन्तान हैं । प्रत्येक मनुष्य को स्वभाव से यह सहज ही मालूम रहता है कि मेरा सुख दुःख और फल्यागा किस में है और सांसारिक व्यवहार करने में गृहस्थी की व्यवस्था से इस बात का अनुभव भी उसको होता रहता है कि " प्रात्मा वै पुननामासि " अथवा " अर्ध भार्या शरीरस्य " का भाव समझ कर अपने ही समान अपने स्त्री पुत्रों पर भी हमें प्रेम करना चाहिये । किन्नु घरवालों पर प्रेम करना प्रात्मापन्य-बुद्धि सीखने का पहला ही पाठ है। सदेव इसी में न लिपटे रह कर घरवालों के याद इष्ट-मित्रों, फिर आतों, गोत्रजों, ग्रामवासियों, जाति-भाइयों,धर्मवन्धुओं और अन्त में सब मनुष्यों अथवा प्राणिमात्र फे विषय में प्रात्मौपम्प-बुद्धि का उपयोग करना चाहिये, इस प्रकार
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